संजय श्रीवास्तव
आखिर लाख विरोधों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी के कोख में पल रही ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की मानसिकता ने अपना रंग दिखा ही दिया है, यानी भाजपा ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना ‘एक देश, एक चुनाव’ की दिशा में मजबूत कदम बढाते हुए कैबिनेट की मंजूरी के बाद १२९ वां संविधान संशोधन बिल लोकसभा में पेश कर दिया, लेकिन संख्याबल की कमी होने के कारण फिलहाल बिल पार्लियामेंट्री जॉइंट कमेटी के पास भेजना पड़ा है। इसकी अंतिम परिणति क्या होगी फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन यदि सत्ता पक्ष इसे पास करवाने में सफल होता है तो यह भारतीय राजनीति और उसके लोकतांत्रिक चरित्र में बदलाव का एक नया प्रस्थान बिंदु साबित होगा।
असलियत
हिंदुस्थान के लोकतंत्र का अपना एक चरित्र है। इसे संविधान के जरिए बहुत बारीकी से नजाकत से और हिफाजत से बुना गया है। लोकतंत्र का अर्थ ही है इसमें लोगों की मर्जी के बिना कोई कार्य न हो और जो भी कार्य हो वह लोगों को हित में ही हो। लेकिन ‘एक देश, एक चुनाव’ को जिस प्रकार से देश पर लादने की कोशिश की जा रही है वह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ मानी जा सकती है। विपक्ष बार-बार इसे देश हित के खिलाफ मान रहा है और लगातार इसका विरोध कर रहा है बावजूद इसके, इस देश हित में बताते हुए लोकसभा में पेश करना भाजपा की जिद नहीं तो और क्या है? फिलहाल तो विपक्ष की मांग के अनुरूप इसके लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित होगी। समिति का गठन जाहिर है। विभिन्न दलों के सांसदों की अनुपातिक संख्या के आधार पर किया जाएगा। भाजपा सबसे ज्यादा सांसदों वाली पार्टी है इसलिए समिति का अध्यक्ष भाजपा का होगा और उसके सदस्यों की संख्या भी ज्यादा होगी। बेशक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ करानेवाले इस बिल को इसकी मंजूरी मिल जाएगी। सरकार यहां तक तो निश्चिंत है इसलिए स्पीकर ने पक्ष-विपक्ष को यह खुला आश्वासन दे दिया है कि जब यह बिल दोबारा आएगा तो सभी को अपनी बात रखने, बहस करने का भरपूर मौका दिया जाएगा। नि:संदेह दोनों के पास अपने-अपने पूर्व नियत तर्क हैं, लेकिन जब यह मौका आएगा तब यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता पक्ष जिन उद्देश्यों की बात कहकर इस संशोधन को ला रहा है, उसमें उन उद्देश्यों में और क्या इजाफा करता है और विपक्ष अपनी उन दलीलों में और नया क्या जोड़ पाता है, जो वह पिछले कुछ सालों से इसके विरोध में रखता आ रहा है? यह भी कि सरकार और संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट उन प्रश्नों का कौन से हल बताती है और क्या उत्तर देती है, जो बिल लाने से पहले और आज तक अनुत्तरित हैं।
सिर्फ लुभावना सपना
यह आदर्श स्थिति होगी कि सरकार इस संशोधन के आगे जो रास्ता हमवार करने के साथ विपक्ष को भी अपने तर्कशील तथा व्यावहारिक और माकूल जवाबों से सहमत करे, पर ऐसी स्थिति दूर-दूर तक नजर नहीं आती। लोकसभा में बिल पेश होने के बाद विपक्ष ने इस पर विरोध जताया और इसे वापस लेने की गुहार तक लगाई, कईयों ने इसके खिलाफ बोला भी। हालांकि, इसके विरोध में विपक्ष के तर्क अधिकांशत: सैद्धांतिक हैं। उसकी आशंकाएं निर्मूल भले न कही जा सकती हों, लेकिन राजनीति में आखिरकार जनता को संतुष्ट करना होता है, वह भी तात्कालिक तौर पर। फिलहाल, उसकी आशंकाएं दूरगामी दिखती हैं और सत्तापक्ष की इस बावत दी गई दलीलें तत्काल प्रभाव वाली। एक देश, एक चुनाव के पक्ष में सरकारी तर्क पुख्ता हैं। देश में बारहोंमासी चुनावी मौसम चाहनेवाले शायद हीr कुछ लोग हों। इसकी आचार संहिता और दूसरे उपक्रम नीतिगत पैâसलों में देरी के बायस बनते हैं और विकास की रफ्तार सुस्त होती है, जनता की गाढ़ी कमाई से कर स्वरूप मिले धन का बड़ा हिस्सा चुनाव में खर्च होता है। बार-बार चुनाव की खामियां सर्वविदित हैं। एक देश, एक चुनाव राजनीतिक स्थिरता, निरंतरता और सुशासन सुनिश्चित करने में मददगार होगा। राज्य सरकारें और प्रशासन बार-बार चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त न रहकर विकास के काम देखेंगी, सुरक्षा बलों को भी अपने मूल काम पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी का पक्ष यहां पर लुभावना लगता तो है, लेकिन सच्चाई काफी परे है।
श्रमिकों और किसानों का अहित?
श्रमिकों और किसानों के नजरिए से इसे उनके हितों को नुकसान पहुंचाने वाला बताए जाने की कोशिश की जा रही है। श्रमिकों और किसानों के हित में काम करनेवाली एक संस्था का आरोप है कि यह राज्य की स्वायत्तता और संघीय ढांचे को खत्म करके कामकाजी लोगों के कॉरपोरेट शोषण की अनुमति देने के लिए ‘एक राष्ट्र, एक बाजार’ बनाने के कॉरपोरेट एजेंडे का हिस्सा है। यह विधेयक संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली और देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने वाला है।
२०१७ में जीएसटी का कार्यान्वयन कॉर्पोरेट एजेंडा का ही हिस्सा था, जिसका उद्देश्य राज्य सरकारों के कराधान अधिकार और स्वायत्तता को नकारना था, जो संघवाद की रीढ़ है। जीएसटी के कारण राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम उत्पादों, शराब और खनिजों को छोड़कर कराधान के अपने अधिकार खो दिए हैं और इस प्रकार इस अवधि के दौरान वे आर्थिक रूप से कमजोर हो गए हैं। केंद्रीय बजट २०२४-२५ में ‘डिजिटल कृषि मिशन’ की शुरुआत और ‘राष्ट्रीय सहयोग नीति’ की घोषणा और अब ‘कृषि विपणन पर नीति रूपरेखा’ तीन कृषि कानूनों को पिछले दरवाजे से पुनर्जीवित करने की अनुमति देने के ‘कॉर्पोरेट एजेंडे’ की रणनीति का हिस्सा हैं, जिनका उद्देश्य राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण करना था। एसकेएम ने एनडीए-२ सरकार को उन्हें निरस्त करने के लिए मजबूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
भारत के संविधान की ७वीं अनुसूची के अनुसार कृषि, उद्योग, सहकारिता और भूमि राज्य सूची में हैं। कृषि विपणन पर प्रस्तावित नीति ढांचा अपनी चुप्पी के माध्यम से एमएसपी को नकारता है और डिजिटलीकरण, अनुबंध खेती और खरीद के लिए बाजार पहुंच के माध्यम से कृषि उत्पादन और विपणन पर कॉर्पोरेट नियंत्रण की अनुमति देता है और इस प्रकार राज्यों के संघीय अधिकारों का अतिक्रमण करता है। सभी पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव केंद्रीकरण का चरम है, जो स्थानीय निकायों के विकेंद्रीकृत निर्णय लेने के उद्देश्य के खिलाफ है। स्थानीय नगरपालिकाओं के चुनाव कराना राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है और इसे नकारने की कोशिश की जा रही है। भारत की विशाल विविधता और विभिन्न राज्यों में अलग-अलग परिस्थितियों को देखते हुए, यह एक बेतुका प्रस्ताव है।
चलें मान लें सरकार के इरादे नेक हो सकते हैं,
क्या उसके पास इन सवालों का जवाब है कि इससे केंद्र का वर्चस्व वैâसे नहीं बढ़ेगा और संघीय ढांचा क्यों कमजोर नहीं होगा। क्षेत्रीय दलों और क्षेत्रीय मुद्दों की महत्ता कम वैâसे नहीं होगी। क्या गारंटी कि इसके बाद किसी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता नहीं आएगी और बार-बार राष्ट्रपति शासन की नौबत नहीं आएगी। एक साथ चुनावों के लिए इतने ईवीएम और मशीनरी वैâसे तैयार होगी और एक बार चुनाव निबटने के बाद चुनाव आयोग पांच साल क्या करेगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।