डॉ. रवींद्र कुमार
रंगभेद की नीति पहले अफ्रीका में जोर-शोर से थी। आज यह नीति अफ्रीका में मृतप्राय है। हमारे देश में भी सदियों से रंगभेद जारी है। हम मानते नहीं हैं, मगर प्रैक्टिस करते हैं क्योंकि हम विश्व में हिपोक्रेट नंबर वन हैं अन्यथा आप ही बताइए जहां चूहों का मंदिर हो, सांप की पूजा होती हो, बिल्ली मौसी हो, बंदर मामा हो, गाय माता हो और मोर से छेड़छाड़ राष्ट्रीय अपराध हो वहां भैंस को न कोई पदवी-उपाधि न कोई मंदिर चौबारा। क्या सिर्फ इसलिए कि वह काली है। वह कब से आपकी इस रंगभेद नीति का शिकार है, मगर फिर भी चुपचाप आपको दूध दिए चली आ रही है। आप उसे इंजेक्शन लगा लगाकर उसके दूध की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते हैं। उसे गंदगी में रखते हैं। रूखा-सूखा खाने को देते हैं और नहीं तो वह पॉलीथिन बैग ही खाती फिरती है।
किसी समाज की भाषा व साहित्य उस समाज का दर्पण होता है। हिंदी भाषा तथा लोक साहित्य में जो मुहावरे व लोकोक्तियां हैं। वे भी भैंस के साथ पक्षपात करती हैं, न्याय नहीं करती हैं। उदाहरण के लिए `जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ अरे भई अब लाठियों का जमाना नही रहा। यह कहावत भैंस के साथ अन्याय है और उसे ‘पूअर लाइट’ में रखता है। नवीन मुहावरा होना चाहिए ‘जिसकी ए.के.४७ उसका इंडिया १९४७’ आप अपने दिल पे हाथ रख कर बताइए क्या यह अधिक प्रासंगिक नहीं। दूसरा मुहावरा है, `भैंस के आगे बीन बजाना’ यह भैंस का सरासर अपमान है। आप साबित क्या करना चाहते हैं कि भैंस संगीत प्रेमी नहीं है। ललित कलाओं का उसे कोई ज्ञान नहीं है। वह फूहड़ है। बच्चू याद कीजिए उसी का दूध पी-पीकर आप इतने बड़े हुए हैं।
भैंस को इतना ‘नेगलेक्ट’ कर रखा है कि कोई चुनाव चिह्न के तौर पर भी स्वीकार क्यों नहीं करता? गाय, बैल, बछड़ा, हाथी, घोड़ा यहां तक कि गधा भी चुनाव चिह्न है तो महाराज आप ‘कनविंस’ हुए कि नहीं कि भैंस के साथ सदियों से दुर्व्यवहार हो रहा है। समाज में उसे उचित स्थान दिलाने के लिए उठ खड़े होइए।
`हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में इंसाफ हमारा नारा है’
अब वक्त आ गया है कि भैंस को उसका ड्यू दिलाया जाए। सर्वप्रथम तो उसे भाभी, चाची, ताई, दीदी या जो भी अन्य आदर सूचक रिश्ता हो, उससे नवाजा जाए। मेरी गुहार है ‘एनीमल सोसायटी’ वालों से कि इस ज्वलंत विषय पर तुरंत ध्यान दिया जाए। यह काम इलेक्शन से पहले ही निपटा लिया जाए, नहीं तो इलेक्शन कोड के चलते आप बंध जाएंगे। मैं नहीं चाहता कि इस सेंसिटिव विषय को और विवादास्पद बनाया जाए। पहले ही क्या विवादों की कमी है, क्योंकि बात नहीं बनी तो फिर आप लोग ही कहेंगे कि `गई भैंस पानी में’।