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सटायर : किसान आत्महत्या…नहीं…नहीं!

डॉ. रवींद्र कुमार

श्रीयुत नेताजी,
कहावत है झूठ तीन तरह के होते हैं। सीधा सादा झूठ, सफेद झूठ और इन सबसे बड़ा आंकड़ों की बाजीगरी (स्टैटिस्टिक्स) वाला झूठ। नेता जी ने आंकड़े दिए हैं भारत में हर साल एक लाख लोग आत्महत्याएं करते हैं। उसकी १५ज्ञ् आत्महत्याएं आपके राज्य में होती हैं। आपने यह भी खुलासा किया है कि अकेले मुंबई में मात्र ४,००० आत्महत्याएं होती हैं। आपका मानना है ये कोई ज्यादा नहीं। आपके विश्लेषकों ने ये आंकड़े भी जुटाए हैं कि जितनी किसानों ने आत्महत्याएं की हैं उसका मात्र ४०फीसदी ही कृषि ऋण के चलते हैं। बाकी?…बाकी? उनसे आपको क्या?
आप सही कह रहे हैं कि केवल ४०फीसदी मौतें ही कृषि ऋण के चलते हुई हैं, जो कि बकौल आपके कोई ज्यादा भी नहीं, तो ये ६०फीसदी क्यों मरते हैं? क्या कारण है? आपके विश्लेषकों ने इस पर ध्यान दिया या नहीं? मैंने इस पर दिमाग दौड़ाया, आप चाहें तो मेरी ये आंकड़ेबाजी अगली प्रेस कॉन्प्रâेंस में अपनी बताकर पत्रकारों को परोस दें।
हिंदुस्थान एक प्रेममय देश है। प्रेम करना हमारी राष्ट्रीय हॉबी है। प्रेम करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। खाप पंचायत इसकी इजाजत दे या न दे। हमारे यहां लैला-मजनूं, हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की एक ऐतिहासिक प्रेम परंपरा है। सो ये किसान, किसानी छोड़कर प्रेम में पड़ जाते हैं। इससे खेती चौपट हो जाती है। २५ फीसदी आत्महत्याएं प्रेम से प्रेम के मत्थे मढ़ी जा सकती हैं। इसमें नेताजी का, ऋण का, सरकार का, बैंक का, खेत खलिहान किसी का भी क्या लेना देना?
बाकी की १५फीसदी आत्महत्याओं का आप दोषारोपण कर दीजिए शिक्षा पर, परीक्षा प्रणाली पर, मानसिक दबाव… डिप्रेशन पर। कोचिंग-वोचिंग लेते नहीं… फेल होते हैं। कई बार तो फेल होने के डर मात्र से आत्महत्या कर लेते हैं। सरकार (आपकी नहीं) केंद्र सरकार, ये परीक्षा सिस्टम, ये पास-फेल का सिस्टम ही समाप्त करे। गर ऐसा हो गया….तो सारा श्रेय आपका।
मुंबई मायानगरी है। यहां रोजाना गांवों से लोग हीरो बनने आते हैं। वो समझते हैं कि सारे हीरो पहले उनकी तरह ही गांव में खेती करते थे और शहर आकर वो हीरो बन गए हैं। धोती-कुर्ते की जगह सफारी सूट, हल-बैल की जगह होंडा सिटी और अगले नुक्कड़ पर प्रियंका चोपड़ा, सुष्मिता सेन या ऐश्वर्या राय बच्चन उन पर मर मिटने को तैयार खड़ी हैं। ऐसा क्योंकि होता नहीं। कोई हीरो-हीरोइन मिलना तो दूर, दिखती भी नहीं। स्टूडियो में चौकीदार घुसने नहीं देता। अत: कोई १५फीसदी हीरो हीरालाल इस गम में आत्महत्या कर लेते हैं कि वे हीरो नहीं बन पाए, न अपनी मनपसंद हीरोइन के साथ डुएट गा पाए।
८ फीसदी आत्महत्याएं शहर के बढ़ते प्रदूषण, ट्रैफिक, लोकल के गड़बड़ टाइमिंग के माथे पर फोड़ दीजिए। प्रदूषण से टेंशन होता है। टेंशन से डिप्रेशन होता है। डिप्रेशन में आदमी कुछ भी कर सकता है। उसका क्या भरोसा! भला इसमें कृषि ऋण बीच में कहां से आ गया। ऐसे ही बेतरतीब ट्रैफिक, बिना भरोसे की लोकल से अलग तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इससे ईव टीजिंग, लूटमार,बलात्कार, विवाहेत्तर संबंध बढ़ रहे हैं। वैâसे? ये पूछने की अव्वल तो कोई हिमाकत करेगा नहीं, करे तो उसे घूर के कहिए…इसके लिए दूसरी प्रेस कॉन्प्रâेंस रखी जा सकती है। फिर मुझे ताबड़तोड़ बताना तब तक मैं कुछ और अच्छा-सा सोच के रखता हूं।
२५ फीसदी आत्महत्याओं को आप मानिए मगर बताएं कि ये लोग ‘किसान’ हैं ही नहीं। किसान की परिभाषा हाई-फाई कर लीजिए। जैसे जो विदेशी जीन्स पहन कर, विदेशी ट्रैक्टर चलाए, जिसकी जमीन की होल्डिंग सौ बीघा या उससे अधिक हो वो ही किसान हैं बाकी सब मजदूर… बंधुआ मजदूर हैं। उसके लिए आप पहले से ही करोड़ों रुपए का अनुदान एन.जी.ओ. को दे रहे हैं। बहुत हाय तौबा मचे तो एन.जी.ओ. के ऊपर एक जांच कमीशन बिठाने का वादा कर दीजिए। और ज्यादा सरगर्मी हो….बात आपकी ‘खुर्सी’ तक आन पहुंचे तो जांच कमीशन घोषित भी कर दीजिए। उसकी रपट बनाने के लिए ‘सेवक’ को याद कीजिएगा।
आपका
सेवक

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