मुख्यपृष्ठस्तंभसटायर : रतन ले लो भारत रतन

सटायर : रतन ले लो भारत रतन

डॉ. रवींद्र कुमार
एक वक्त था जब पद्मश्री को भी बहुत मान-सम्मान से देखा जाता था। सामान्यत: यह तभी मिलता था, जब यह भली-भांति स्थापित हो जाता था कि अमुक व्यक्ति ने किसी ‘नोबल-कॉज’ के लिए अपनी जिंदगी खपा दी है। बुढ़ापे में आकर पर्याप्त रूप से सीनियर होने पर ही समाज और देश को दी गर्इं अपनी सेवाओं को देखते हुए पद्मश्री दी जाती थी। इसको कभी भी संदेह या विनोद से नहीं देखा जाता था। हल्की टिप्पणी करना तो दूर की बात है।
फिर एक दौर ऐसा आया कि लोग-बाग ढूंढे जाने लगे। ट्रंक में से झाड़-पोंछकर निकाले जाते। दूसरे शब्दों में ये मरणोपरांत दिए जाने लगे। धीरे-धीरे लोगों को यकीन हो चला कि जब तलक जिंदा हैं, तब तक तो ये मिलना नहीं हैं।
फिर वो युग भी आया जब कहा जाने लगा कि देखो हमने एक धूल में पड़े हीरे को ढूंढ निकाला है, जो पिछली सरकारों की लापरवाही से धूल खा रहे थे। हमने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दी। अथवा हमने पिछड़े वर्ग के प्रकांड विद्वान को उसका ड्यू दिलाया है।
फिर काम के आदमियों को ये दिया जाने लगा। वो जो काम में माहिर हों। जुगा़ड़ू हों। वोट दिला सकें। वोटर्स को प्रभावित कर सकें। जो कभी काम आए थे या फिर वो जो काम आ सकें। ग्रेट तो उन्होंने हो ही जाना है। हमारे राष्ट्रीय पुरस्कार के बाद कभी ऐसा हुआ है कि बंदा ग्रेट न हुआ हो!
‘सम आर बॉर्न भारत रतन
सम अचीव भारत रतन एंड
सम हैव भारत रतन थर्स्ट अपॉन दैम’
इस शृंखला में कई लिस्टें निकल गर्इं हैं मेरी तरफ अभी तक ध्यान गया ही नहीं है। ताज भोपाली साब ने ऐसी ही सिचुएशन पर लिखा है:
बज्म के बाहर भी एक दुनिया है
मेरे हुजूर बड़ा जुर्म है ये बेखबरी
पहले लोग नाम ही इस तरह के रख लेते थे कलेक्टर सिंह, तहसीलदार सिंह। मैंने भी अपना नाम सोच लिया है:- भारत रतन या पद्म भूषण।
ये नाम चेंज करने का क्या प्रॉसीजर है?

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