मुख्यपृष्ठस्तंभधर्मनिरपेक्षता और संविधान: धार्मिक आस्था बनाम विकास का संतुलन

धर्मनिरपेक्षता और संविधान: धार्मिक आस्था बनाम विकास का संतुलन

-अर्थशिल्पी, भरतकुमार सोलंकी

भारत का संविधान देश को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में परिभाषित करता हैं, जिसका अर्थ हैं कि सरकार का किसी भी धर्म के प्रति न तो कोई विशेष झुकाव होगा और न ही किसी धर्म का समर्थन या विरोध किया जाएगा। धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान की आत्मा हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि राज्य सभी नागरिकों को उनके धार्मिक विश्वासों के पालन की स्वतंत्रता प्रदान करता हैं, परंतु धार्मिक आस्थाओं को अंधश्रद्धा में परिवर्तित कर उन्हें बढ़ावा देने का कार्य सरकार के किसी भी स्तर पर नहीं होना चाहिए।

संविधान के अनुच्छेद 27 में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया हैं कि किसी व्यक्ति से ऐसा कर (Tax) नहीं लिया जाएगा जिसका उपयोग विशेष रूप से किसी धर्म के प्रचार या धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जाए। यह एक महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, जो यह सुनिश्चित करता हैं कि सार्वजनिक धन का उपयोग जनता के व्यापक हितों, विकास और कल्याणकारी योजनाओं में किया जाए, न कि किसी विशेष धर्म के अनुष्ठानों या पूजा स्थलों के निर्माण-जीर्णोद्धार में। यह दृष्टिकोण इस विचार को मजबूत करता हैं कि राज्य धर्म से अलग रहते हुए, धार्मिक आस्थाओं को अंधविश्वासों में बदलने या उन्हें संस्थागत स्वरूप देने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा।

हालाँकि, संविधान की इस तटस्थता का अर्थ यह नहीं हैं कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक या पर्यटन महत्व रखने वाले धार्मिक स्थलों की उपेक्षा की जाए। सरकार का हस्तक्षेप केवल उस सीमा तक स्वीकार्य है जहाँ धार्मिक स्थलों का संरक्षण पर्यटन, सांस्कृतिक धरोहर और जनहित के नाम पर किया जाए। उदाहरण के लिए, किसी मंदिर, मस्जिद या गिरिजाघर के सुशोभिकरण या उनके आस-पास बुनियादी सुविधाओं जैसे सड़क, जल आपूर्ति, शौचालय और पर्यटक सुविधाओं के विकास के लिए बजट आवंटित किया जा सकता हैं।लेकिन यह कार्य धर्म विशेष को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि सार्वजनिक विकास और पर्यटन उद्योग को बढ़ाने के उद्देश्य से होता हैं।

यह भी महत्वपूर्ण हैं कि संविधान की दृष्टि से अंधश्रद्धा और धार्मिक अंधविश्वास को प्रोत्साहित करना न केवल अवांछनीय हैं, बल्कि यह समाज के प्रगतिशील विकास में बाधक भी हैं। संविधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना हैं कि नागरिक अपनी आस्था के पालन में स्वतंत्र रहें, परंतु वह आस्था विज्ञान, तर्क और सामाजिक विकास के खिलाफ न हो। सरकार का कर्तव्य हैं कि वह शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जागरूकता के माध्यम से नागरिकों को अंधविश्वासों से मुक्त करे और तर्कसंगत समाज का निर्माण करे।

संविधान के तहत राज्य के संसाधन और बजट का उद्देश्य सभी नागरिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना हैं, न कि धार्मिक संस्थाओं के निर्माण या अनुष्ठानों को बढ़ावा देना। यदि राज्य इस दिशा में कदम बढ़ाए तो यह न केवल संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का उल्लंघन होगा, बल्कि समाज को पीछे धकेलते हुए अंधश्रद्धा की जड़ें और गहरी करेगा।

अतः, यह आवश्यक हैं कि सरकार और समाज दोनों यह समझें कि धार्मिक आस्था और अंधविश्वास के बीच एक स्पष्ट रेखा है। संविधान का दायित्व हैं कि वह इस रेखा को बनाए रखते हुए विकास और तर्कशीलता को प्राथमिकता दे। धार्मिक स्थलों के संरक्षण को यदि पर्यटन और सांस्कृतिक धरोहर के लिए उपयोग में लाया जाए तो यह स्वागत योग्य है, परंतु धार्मिक आस्थाओं को अंधश्रद्धा में बदलने के किसी भी प्रयास को संवैधानिक दायरे में स्थान नहीं दिया जा सकता।

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