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शर्मनाक! केवल ५५ मिनट चली संसद : संसद में शोर!, सरकार है मौन

• ‘सदन को सुचारु रूप में चलाना सरकार की जिम्मेदारी होती है’
• अटल जी के शब्दों को याद करे मोदी सरकार
राजेश माहेश्वरी
बात वर्ष २००३ की है। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय गठबंधन की सरकार का शासन था। अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया था। विपक्षी पार्टियां संसद में अमेरिका के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कराने की मांग कर रही थीं। कुछ दिनों तक हंगामे की वजह से संसद में गतिरोध बना रहा। अंतत: वाजपेयी ने सिन्हा और तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री सुषमा स्वराज को बुलाकर उन्हें समझाया कि संसद सुचारु रूप से चले यह जिम्मेदारी सरकार की होती है, लिहाजा हमें विपक्ष से सिर्फ मीडिया के माध्यम से ही संवाद नहीं करना चाहिए, बल्कि संसद से इतर अनौपचारिक तौर पर भी बात करते रहना चाहिए। बातचीत के इसी सिलसिले में गतिरोध का हल छिपा होता है। अटल बिहारी वाजपेयी की इस नसीहत के बाद सिन्हा और सुषमा स्वराज की स्पीकर के कक्ष में विपक्षी नेताओं से बातचीत हुई। उसी बातचीत के दौरान निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर भी सहमति बनी और गतिरोध खत्म हुआ। लेकिन हैरानी की बात यह है कि मौजूदा बजट सत्र में गतिरोध सरकार की ओर से हो रहा है।
सत्तारूढ़ पक्ष कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की माफी पर अड़ा है, तो कांग्रेस नेतृत्व वाला विपक्षी खेमा अडानी मामलों की जांच और जेपीसी के गठन पर आमादा है। विपक्ष के करीब २०० सांसदों ने ईडी के मुख्यालय तक पैदल मार्च करने और निदेशक को ज्ञापन देने की रणनीति तय की थी, लेकिन पुलिस ने संसद के बाहर विजय चौक पर ही विपक्षी भीड़ को रोक लिया। सबसे अहम और संवैधानिक महत्व का सवाल है कि संसद का गतिरोध कब और वैâसे टूटेगा? क्या वित्त विधेयक अर्थात बजट भी शोर और हंगामे के बीच ध्वनि मत से पारित किया जाएगा? बजट पर जो संशोधन प्रस्तावित हैं या जो बहस अनिवार्य है, उसका क्या होगा? यदि बजट पर बहस ही नहीं होनी है, तो फिर संसद का औचित्य ही क्या है?
विपक्ष के १६ दलों ने इंटरनेट मेल के जरिए जो ज्ञापन ईडी को भेजा है, उसमें अडानी समूह के खिलाफ गंभीर आरोप हैं। लेकिन सरकार विपक्ष की मांग मानने की बजाय हठधर्मिता पर उतारू है। केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, उसकी कोशिश संसद को कम-से-कम चलाने, उसकी उपेक्षा करने या उससे मुंह चुराने और उसका मनमाना इस्तेमाल करने की रही है। आज केंद्र की सरकार को यह बुरा लग रहा है कि राहुल गांधी ने विदेश में जाकर देश के जनतंत्र का अपमान किया है। अच्छी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोगों को देश के गौरव और सम्मान की चिंता हो रही है, पर क्या देश का अपमान मात्र यह कहने से ही हो जाता है कि हमारे यहां जनतांत्रिक परंपराओं को तोड़ा जा रहा है? हां, ऐसा होने से देश का अपमान होता है, पर इसके लिए दोषी वे हैं, जिनके कंधों पर हमने इन परंपराओं के पालन की जिम्मेदारी सौंपी है। लेकिन यहां हालात ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ वाले हैं। वास्तव में जनतंत्र के औचित्य तथा सफलता का पैमाना यह है कि महंगाई कम हो, गरीबी कम हो, बेरोजगारी कम हो, सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कम हो। इन तमाम मामलों में वर्तमान केंद्र सरकार बात करने से कतराती है और विपक्ष की आवाज दबाने के लिए संसद में गतिरोध पैदा किए हुए हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, १३ से १७ मार्च तक लोकसभा की कार्यवाही ५५ मिनट तक चल सकी है। प्रतिदिन के हिसाब से अगर कार्यवाही को देखा जाए तो औसतन ११ मिनट तक चली। १३ मार्च को सबसे अधिक २१ मिनट तक संसद की कार्यवाही चली। इन पांच दिनों में देश के खजाने से लगभग ५० करोड़ खर्च हो गए। पिछले कुछ वर्षों के बजट सत्रों से तुलना की जाए तो आमतौर पर बजट सत्र में बजट पर चर्चा के लिए निर्धारित घंटों के करीब २० फीसदी या ३३ घंटे बहस होती है। वर्ष २०१८ के बजट सत्र में कुल २१ प्रतिशत (लोकसभा) और ३१ प्रतिशत (राज्यसभा) में काम हुआ। आंकड़ों के मुताबिक, २०१० का शीतकालीन सत्र प्रोडक्टिविटी के लिहाज से सबसे खराब सत्र रहा था। इसके बाद २०१३ और २०१६ के संसद सत्रों का नंबर आता है। २०१०-२०१४ के बीच संसद के ९०० घंटे बर्बाद हुए, तो सोचिए कितना पैसा बर्बाद हुआ होगा?
(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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