कविता श्रीवास्तव
मुंबई
मशहूर बिजनेसमैन और अमेजन के मालिक जेफ बेजोस दुनिया के सबसे दौलतमंद शख्सियतों में से एक हैं। कहते हैं कि उनके पास १०० बिलियन डॉलर से अधिक की संपत्ति है और वे अब भी लगातार अपनी संपत्ति और व्यापार बढ़ाने में लगे हैं। बेजोस हमेशा शान-ओ-शौकत से रहते हैं और अपनी लाइफ स्टाइल पर काफी पैसा खर्च भी करते हैं। इन दिनों बेजोस अपनी एक शर्ट के कारण सुर्खियों में हैं, जो महज १५ डॉलर की बताई जा रही है। महज इसलिए कि एक अरबपति होने के बावजूद वे इतनी सस्ती शर्ट पहने हुए नजर आए थे। एक म्यूजिक इवेंट के दौरान वायरल हुई उनकी वो फोटो जब मैंने देखी तो अनायास ही एक किस्सा मुझे याद आ गया।
हम चार-पांच मित्र कामकाज निपटाकर लोकल स्टेशन के ब्रिज पर खड़े थे। तभी तकरीबन १२-१३ साल का एक बालक मेरे पास आया। फटी पुरानी निकर और मैली-सी कमीज पहने उस बालक ने मुस्कुराते हुए बड़े ही आदर और प्यार से कहा, ‘अंकल जी, आप मुझे दस रुपए दे सकते हैं क्या?’ उसके बोलने के अपनेपन, भोलेपन और उसके विनम्र आग्रह पर मैंने पूछा, ‘क्या करोगे?’ तो उसने जवाब दिया, ‘अंकल मेरी पैंट फट गई है। उधर बगल में अच्छी पैंट मिल रही है। वह लेनी है।’ अमूमन मैं भीख मांगने वाले बच्चों को पैसे नहीं देता। लेकिन उस हंसमुख बालक ने भीख के लिए नहीं, बल्कि एक जरूरत के रूप में बहुत ही आत्मविश्वास से ‘अंकलजी’ कहकर कोई परिचित होने के अंदाज में दस रुपए मांगे थे। मैंने उसे दस रुपए दे दिए और पूछा कि दस रुपए में कहां पैंट मिलती है? उसने बताया कि वहीं पास में रेलवे ब्रिज के नीचे पुराने कपड़े बेचनेवाला बैठता है और वह दस रुपए में पैंट दे देगा। मैंने उसकी बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया और वह लड़का चला गया। लेकिन कुछ देर बाद वह फुल पैंट पहने मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसने कहा कि बहुत अच्छा हुआ मुझे अच्छी पैंट मिल गई। अच्छा पैंट पहनने की उसकी खुशी और दस रुपए के सही उपयोग की उसकी ईमानदारी पर मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने पूछा शर्ट भी लेनी है क्या? उसने कहा, ‘हां अंकल, बहुत अच्छी शर्ट मिल भी रही है। वह भी दस में मिल रही है।’ मैंने उसे तुरंत बीस रुपए निकालकर दिए और कहा, ‘जाओ बेटा शर्ट भी ले लो।’ कुछ देर बाद वह बालक फिर मेरे पास आया तो उसके बदन पर फुल पैंट, शर्ट और ऊपर से एक जैकेट भी थी। वह बहुत अच्छा लग रहा था। यह वही लड़का था, जो कुछ देर पहले मेरे सामने मैली फटी हुई हाफ पैंट और मैली टी शर्ट पहने आया था। उसने कहा, ‘अंकल जी, मैं तो एकदम हीरो बन गया।’ तब मुझे ही नहीं, मेरे साथ खड़े सभी लोगों को बड़ी खुशी हुई कि मेरे दिए हुए केवल तीस रुपए से कुछ ही देर में वह बालक एकदम हीरो बन गया। उससे भी ज्यादा सुखद बात यह थी कि उसने भीख नहीं, बल्कि एक सहयोग के रूप में जिस काम के लिए पैसा मांगा उसने पूरी ईमानदारी से उसी के लिए इस्तेमाल किया। उसके बाद वह लौटकर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए वह दिखाने मेरे पास आया भी। पैसे मांगने और मुझसे बात करने के उसके अंदाज में बहुत जबरदस्त आत्मविश्वास था। मैंने उससे पूछा, ‘बेटा कहां रहते हो।’ उसने बताया कि उसका नाम अमित है। वह अक्सर नागपुर में रहता है। वहां कहां रहते हो? यह पूछने पर उसने विस्तार से अपना परिचय दिया कि वह प्लेटफॉर्म के आस-पास ही रहता है। उसका अपना कोई नहीं है। वह लोगों के छोटे-मोटे काम करता है। भीख नहीं मांगता। जो मिल जाता है, उससे अपना गुजारा चलाता है। प्लेटफॉर्म या स्टेशन के आस-पास ही कहीं भी सो जाता है। वह कब से ऐसे रहता है, उसे ही पता नहीं। सब उसे बचपन से ही पहचानते हैं। कोई भी उसे खाना दे देता है। मुझे उसकी आत्मनिर्भरता पर भी बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा, ‘मां-बाप?’ तो उसने बताया, ‘पता नहीं मेरे मां-बाप कहां हैं?’ उसके जैसे कई लावारिस बच्चे ऐसे ही रहते हैं। अपने आप अपना गुजर-बसर करते हैं। मैंने उससे पूछा कि ‘बेटे बीमार होते हो तो क्या करते हो?’ उसने बड़े ही आत्मविश्वास से बताया कि ‘सरकारी अस्पताल है न! वहां अंकल लोग मुफ्त में दवाई देते हैं।’ मैंने उसके मुंबई आने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मेरे नागपुर का एक दोस्त यहां आया है। उससे मिलने आया था। वह यहां नहीं मिला। अब अगली ट्रेन से भोपाल वाले मित्र के पास जाऊंगा। उसने बताया कि वह ट्रेन में मजे से कहीं भी चला जाता है। उसके जैसे लावारिस दोस्त उसे हर जगह मिल जाते हैं। उसने बताया कि देश के कई स्टेशनों पर उसके मित्र हैं। वह बताने लगा कि ट्रेन में साफ-सफाई भी कर देता हूं। मुसाफिर लोग बढ़िया खाना दे देते हैं। समुद्र में, नदी में, रेल पटरियों के पास लगे नलों पर कहीं भी नहा लेता है। ट्रेन या बस से जानेवालों की मदद के लिए कुली बन जाता हूं। लोगों से ऐसे ही बातचीत करते, सहयोग मांगते हुए कहीं भी चला जाता हूं। लोग अच्छा खाना दे देते हैं और उसका गुजर-बसर चल जाता है। उस नन्हें से बच्चे के आत्मविश्वास, उसके गुजर-बसर करने के तरीके और जरूरत से ज्यादा न मांगने की उसकी आदत आदि के बारे में जानकर मुझे बहुत ही रोमांचक सा लगा। उसकी बातों ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया।
स्टेशनों पर या आस-पास उसके जैसे बच्चों को देखकर अमूमन हमें उनके चोर-बदमाश होने का शक होता है। लेकिन हम उनकी व्यथा को नहीं जानते। लेकिन इस बालक ने ऐसे लावारिस घूम रहे बच्चों के बारे में मेरी सोच को बिल्कुल बदल दिया। पुराने कपड़े बेचने वालों की ओर हमने कभी ध्यान से देखा ही नहीं। लेकिन मुझे पहली बार पता लगा कि स्टेशनों के आस-पास पुराने कपड़े-चिंदी आदि खरीदने वालों का भी एक वर्ग है, जो दस-बीस रुपए में कपड़े खरीदकर वैसा ही महसूस करता है, जैसा हम नए कपड़े खरीदने के बाद करते हैं। उस दिन अमित नामक उस बालक के बोलने के ईमानदार लहजे और उसका विस्तृत परिचय सुनने के बाद मेरे साथ खड़े सभी मित्रों ने अपनी ओर से उसे बीस-बीस रुपए दिए तो उसने कहा कि यह तो बहुत पैसे हो गए। कोई बात नहीं। मैं अब कुछ और कपड़े ले आता हूं। भोपाल वाले दोस्त के लिए। उसे भी गिफ्ट करूंगा। मैं फिर सोचने लगा कि दुनिया में पैसे कमाने और जुटाने के लिए कितनी प्रतिस्पर्धा और संघर्ष है। लेकिन यह बालक तो अपना काम हो जाने के बाद अतिरिक्त पैसे का उपयोग अपने लोगों के भले के लिए करना चाहता है। यह उसकी व्यवहार कुशलता और उसके उदारवादी स्वभाव को दर्शाता है। बिना माता-पिता और बिना किसी अभिभावक के ये संस्कार उसने कहां से सीखे? वह बालक कुछ देर बाद सचमुच और भी कपड़े ले आया। तब तक हमारे जाने का समय हो गया था और उसकी भी भोपाल की गाड़ी आ रही थी।