कविता श्रीवास्तव
भारतीय जनता पार्टी शासित मणिपुर में इन दिनों हिंसा, आगजनी और तोड़-फोड़ जारी है। हालत यह है कि सरकार ने वहां हिंसा करने वाले को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया है। इंटरनेट सेवा बंद कर दी है। सेना तैनात की गई है। इस हिंसा के पीछे वहां का जातीय संघर्ष है, जो अब चरम पर जा पहुंचा है। बहुसंख्यक मेइती समाज ने खुद को अनुसूचित जनजाति घोषित करने की जोरदार मांग उठाई है। ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन, मणिपुर ने इस मांग का विरोध किया है, क्योंकि मेइती समुदाय जनसंख्या में अधिक है और उनका सियासी दबदबा भी है। इसलिए यहां के मौजूदा जनजाति समूहों को लगता है कि अगर मेइती को भी जनजाति का दर्जा मिल गया तो उनके लिए लाभ के अवसर कम हो जाएंगे। मेइती लोग पहाड़ों पर भी जमीनें खरीदने लगेंगे और वे हाशिए पर चले जाएंगे। फिलहाल, जिन्हें जनजाति का दर्जा मिला हुआ है, वे ही इंफाल वैली में जमीनें खरीद सकते हैं, जबकि मेइती समुदाय की दलील है कि उन्हें पहाड़ों से अलग किया जा रहा है। बाहर से आए शरणार्थी जो अधिकांश नागा और कुकी समुदाय से हैं, वे हावी हो रहे हैं। कहा यह भी जाता है कि यहां की जमीन पर बड़े पैमाने पर अफीम की अवैध खेती होती है। इसका लाभ उठाने की होड़ भी है।
मणिपुर दरअसल नागालैंड, असम और मिजोरम राज्यों से सटा हुआ है। उसके दक्षिणी तरफ चीन और म्यांमार की सीमाएं हैं। इसलिए उस पर म्यांमार की स्थिति का बहुत प्रभाव है। म्यांमार के गृहयुद्ध से भागे ढेर सारे शरणार्थी मणिपुर में हैं। मणिपुर कभी बर्मा में भी शामिल रहा है।
गौरतलब हो कि मणिपुर में जिन ३३ समुदायों को जनजाति का दर्जा मिला है, वे नागा और कुकी जनजाति के हैं। इनमें अधिकतर ईसाई हैं। जबकि मेइती समुदाय का बड़ा हिस्सा हिंदू है। शेड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ मणिपुर २०१२ से ही मेइती समुदाय के लिए संघर्षरत है। उसकी दलील है कि इस समुदाय, उसके पूर्वजों की जमीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा जरूरी है। राज्य में बाहर से आए लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए भी संवैधानिक कवच की जरूरत है।
इस बीच कुछ जानकारों का मत है कि मेइती समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि सरकारी जमीन पर अफीम की खेती करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। इन सबके बीच जातीय तनाव से घिरे मणिपुर को आर्थिक विकास की आवश्यकता है। इसी से जातीय संघर्ष कुछ कम हो सकता है। इसका दीर्घकालिक समाधान करना ही बड़ी चुनौती है।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)