प्रभुनाथ शुक्ल
भदोही
भारत में कृषि सुधार एक अंतहीन बहस का मुद्दा रहा है। स्वतंत्र भारत में लघु और सीमांत किसानों की हालत आज भी जस की तस है। मोदी सरकार किसानों की आय दोगुना करने की बात करती है, लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा कुछ नहीं दिखता। जिसकी वजह से देश का पेट भरनेवाला किसान खुद भूखा, नंगा और फटेहाल है।
आजादी के बाद श्वेत और हरितक्रांति के नारे बुलंद किए गए, लेकिन जमीनी स्तर पर उसका लाभ किसानों को नहीं मिला। सरकार की नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुआ। बैंकों के कर्ज तले उसकी पीढ़ियां दबती चली गर्इं। किसानों की समस्याओं को लेकर एक स्वतंत्र आयोग का गठन नहीं किया जा सका जो किसानों की समस्याओं की निगरानी रखता।
आधुनिक विकास में लघु और सीमांत किसानों के लिए कृषि लाभकारी साबित नहीं हो पाई। अगर ऐसा होता तो किसान आत्महत्या जैसा कदम कभी नहीं उठाता। देश की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी तकरीबन २० फीसदी है। इसके बावजूद किसानों की दशा किसी से छुपी नहीं है। महाराष्ट्र में ५१२ कुंतल प्याज बेचने के बाद किसान को सिर्फ दो रुपए का मुनाफा मिलता है। यह कृषि और किसानों के साथ भद्दा मजाक नहीं तो और क्या है? सरकारों ने किसानों को सिर्फ लॉलीपॉप दिया उनकी माली हालत सुधारने का प्रयास नहीं किया।
केंद्र की मोदी सरकार की तरफ से लाए गए विवादित कृषि कानूनों की वापसी तो हो गई, लेकिन किसानों की उपज और मंडी के बीच आर्थिक संतुलन बढ़ाने और लागत घाटा कम करने की कोई ठोस नीति किसानों के लिए नहीं बन पाई। किसान बैंक और साहूकारों के कर्ज के बोझ तले डूबता गया। फसलों की लागत मूल्य तक नहीं निकल पा रही है। भारत का किसान दुनिया का पेट भर सकता है, लेकिन हमारी सरकारों के पास ऐसी नीति नहीं बन पाई, जिससे उसकी माली हालत में सुधार हो। किसनों की उपज और उससे जुड़े रासायनिक उर्वरक कृषि संयंत्र बेचकर लोग मालामाल हो गए। लेकिन किसान जहां का तहां रह गया। किसान अपना धान और गेहूं २,२०० रुपए प्रति कुंतल के समर्थन मूल्य पर बेचता है। फिर वहीं किसान उसी फसल का बीज कितना महंगा लेता है। उसका सारा लाभांश कौन हजम करता है। कृषि में लगातार लागत घाटा बढ़ रहा है। किसान पीएम योजना जैसी लॉलीपॉप सुविधाएं उसके लिए नाकाफी हैं।
देश का लघु, सीमांत और मध्यम किसानों के लिए कृषि में बेहतर सुधार की आवश्यकता है। किसानों की फसलों का उचित समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। फसलों के तैयार होने के बाद तत्काल उन्हें बाजार उपलब्ध कराना। सस्ते दर पर कृषि संयंत्र की उपलब्धता। सिंचाई के लिए बिजली, नहर, ट्यूबवेल, तालाब और बावड़ी की जरूरत है। सूखा प्रभावित राज्यों में इसके लिए विशेष वित्त की जरूरत है। इसके साथ रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खाद-बीज पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
केंद्र और राज्य सरकार अक्सर धान-गेहूं जैसे उत्पादन के अलावा बेहद कम फसलों की समर्थन मूल्य पर खरीद करती हैं। जबकि किसान गन्ना, कपास, ज्वार, बाजरा, तिलहन, दलहन, मोटे अनाजों की खेती करता है। उस हालात में उसे उचित बाजार नहीं मिल पाता है। जिन राज्य में सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहां सरकारी खरीद की नीतियां और अफसरशाही के बर्ताव से किसान परेशान हो जाता है। जिसकी वजह है कि किसान कम दामों में बिचौलियों को अपनी फसल बेचने को मजबूर हो जाता है।
महाराष्ट्र में नासिक और पुणे जैसे जिले प्याज उत्पादन को लेकर बेहद अग्रणी हैं। देश की खपत का ४२ फीसदी उत्पादन महाराष्ट्र में होता है। लासलगांव एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी है। प्याज एक ऐसा सौदा है, जिसमें बारिश और दूसरे प्राकृतिक प्रकोप की वजह से किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है, जबकि यही प्याज बाजारों में १५ से २० रुपए प्रति किलो बिक रहा है। केंद्र सरकार को ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए कि उत्पादन के बाद किसानों की फसल का हर स्तर पर उचित मूल्य मिले। किसान के साथ दो रुपए वाला भद्दा मजाक नहीं होना चाहिए। लागत मूल्य से किसान को दो गुना फायदा होना चाहिए। लेकिन महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में किसान उपज के लिए बाजार भाव उपलब्ध न होने पर अपनी खड़ी फसल को नष्ट कर देता है। लॉकडाउन में यह स्थिति आम देखी गई। बाजार न मिलने पर यहीं हालत देखने को मिलती हैं।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अभी तक तौकते तूफान से प्रभावित किसानों को मुआवजा नहीं मिल पाया है। राज्य में प्याज की अच्छी कीमत न मिलने पर किसान अपनी फसल की जुताई करने को मजबूर हैं। महाराष्ट्र सरकार ने भी पीएम किसान की तर्ज पर यहां किसानों को ६,००० रुपए देने का पैâसला किया है और कई लाभकारी योजनाओं की घोषणा की है, लेकिन किसानों को कितना लाभ होगा यह भविष्य बताएगा। कृषि लागत को देखते हुए यह नाकाफी है। हालांकि, कई घोषणाएं अच्छी हैं लेकिन परिणाम जब अच्छे हों तब।
महाराष्ट्र सरकार द्वारा एक रुपया में फसल बीमा उपलब्ध कराने का वादा किया गया है, लेकिन जमीनी बात यह है कि फसल बीमा की नीतियां ही कारगर नहीं हैं। उसका अच्छा लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है यह सरकारें भी अच्छी तरह जानती हैं। बीमा कंपनियों का नियम इतना उलझा है कि किसान खुद उलझ जाता है। प्राकृतिक आपदा में सामूहिक स्तर पर किसानों का नुकसान होने पर ही फसलों का आकलन होता है, जबकि किसान व्यक्तिगत रूप से भी प्रभावित होता है। आपदा के बाद किसानों को जो भी मदद मिलती है वह भी सवाल खड़े करती है।
महाराष्ट्र में एक आंकड़े के अनुसार २.१० करोड़ हेक्टेयर पर कृषि की जाती है। कृषि और उससे जुड़े संबंधित गतिविधियों में यहां ६५ फीसदी श्रमिक काम करते हैं। महाराष्ट्र भारत का सर्वाधिक प्याज उत्पादक राज्य है। यहां धान, ज्वार बाजरा, कपास, गन्ना, गेहूं, दलहन और तिलहन फसलों का उत्पादन किया जाता है। इसमें मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन जैसी फसलें आती हैं। सिंचाई की सुविधाओं में नहर, डैम, बावड़ी जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं। विदर्भ जैसा इलाका सूखे से प्रभावित रहता है।
महाराष्ट्र और देश में किसानों की आत्महत्या को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। सरकारें किसी की हों लेकिन आत्महत्याएं नहीं थमती हैं। राज्य में किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं लेती। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार साल २०२२ में १०२३ जबकि २०२१ में ८८७ किसानों ने आत्महत्या की। किसानों की आत्महत्या सरकारों के लिए बड़ी चुनौती है। इसकी मुख्य वजह किसानों की उपज का उचित लाभ बिचौलिए और ऊपर वाले कमाते हैं।
महाराष्ट्र और पूरे भारत में बढ़ता कृषि घाटा किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। इसके बाद बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएं इस समस्या को और बढ़ाती हैं। जिसकी वजह से किसानों को उसकी मेहनत का परिणाम नहीं मिल पाता है और किसान कर्ज के बोझ तले दब जाता है। कृषि लागत तक निकालना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। बैंक से कर्ज लेने के बाद फसल का अच्छा उत्पादन न होने पर किसान कर्ज में डूब जाता है और आत्महत्या करने पर विवश होता है। सरकारों को किसानों के कर्ज के मसले पर एक ठोस नीति बनानी चाहिए। चुनावी योजनाओं का लॉलीपॉप उन्हें देने के बजाय जमीनी स्तर पर कृषि के ढांचागत विकास के लिए काम करना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं)