एम. एम. सिंह
१ जुलाई को लोकसभा में अपने पहले भाषण में इनर मणिपुर के मणिपुर के मामले में सांसद बिमोल अकोइजाम ने एक भावुक सुलगता और संवेदनशील सवाल रखा। अकोइजाम ने कहा, `हमारे प्रधानमंत्री चुप हैं, एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं और राष्ट्रपति के अभिभाषण में इसका जिक्र तक नहीं किया गया। यह चुप्पी सामान्य नहीं है। क्या यह चुप्पी पूर्वोत्तर और विशेष रूप से मणिपुर के लोगों को बता रही है कि आप भारतीय राज्य में कोई मायने नहीं रखते हैं।’ मणिपुर में एक साल से अधिक समय से चली आ रही जातीय हिंसा, जिसमें २०० से अधिक लोगों की जान चली गई और ६०,००० से अधिक लोग विस्थापित हुए, पर केंद्र और राज्य की प्रतिक्रिया का मुख्य उद्देश्य चुप्पी और सांकेतिक प्रतीत होता है।
अकोइजाम के भाषण के एक दिन बाद राज्यसभा में प्रधानमंत्री की राज्य में संकट की स्वीकृति और उनके द्वारा की जा रही पुनर्स्थापनात्मक कार्रवाई की रूपरेखा एक लंबे समय से प्रतीक्षित कदम है, जिसे माना जा सकता है कि यह उनकी मजबूरी रही है। वरना उन्हें किसने रोक रखा था? कांग्रेस नेता राहुल गांधी की पूर्वोत्तर की यात्रा, जिसमें मणिपुर के रिबम, चुराचांदपुर और बिष्णुपुर के प्रभावित जिले शामिल हैं-विपक्ष के नेता के रूप में उनकी पहली यात्रा ने सत्तानशीनों की नींद हराम कर दी है। भाजपा और उनकी मीडिया, सोशल मीडिया टीम द्वारा राहुल गांधी की इस यात्रा को सवालों के कटघरे में खड़े किए जाने की कोशिशें औंधे मुंह गिरती नजर आ रही हैं। दरअसल, होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री मोदी को इससे पहले कि विपक्ष मणिपुर के बाबत सवाल उठाए, एक संवेदनशील और कर्तव्यनिष्ठ प्रधानमंत्री के तौर पर इसे एक साल तक खिंचने ही नहीं देना चाहिए था। जब राहुल गांधी मणिपुर के जख्मों पर मरहम लगाने का काम कर रहे हैं तो दिल्ली को चाहिए कि वह अधिक तात्कालिकता और संवेदनशीलता की अनिवार्यता को सुदृढ़ करे।
बेशक, मणिपुर का संकट में आना अकेले एक साल के संघर्ष का कारण नहीं है। यह प्रशासनिक लापरवाही के बड़े पैटर्न का परिणाम है, जिसने इसकी क्षमता को नष्ट कर दिया है, जिससे राज्य के मैती और कुकी के बीच जातीय तनाव बढ़ गया है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और बुनियादी ढांचे के सूचकांकों में गिरावट से पैदा हुए खतरे, पहचान की राजनीति का एक और अधिक विषैला तनाव उनमें भर रहा है। हालिया संकट के पैâलने के बाद से जो एसटी दर्जे और कुकी-जो काउंटर की मेतेई की मांग के साथ शुरू हुआ कि यह उन्हें आर्थिक रूप से हाशिए पर डाल देगा। हालांकि, केंद्र और एन बीरेन सिंह के नेतृत्व वाले राज्य प्रशासन ने इसके लिए बार-बार `बाहरी लोगों’ को दोषी ठहराया है। उन्होंने इस आलोचना को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है कि मध्यस्थता के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, विपक्षी नेताओं की यात्राओं को खारिज कर दिया गया है या जनवरी में थौबल से गांधी की `भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को नौटंकी के रूप में प्रचारित किया गया है। हाल ही में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद मुख्यमंत्री ने चुनाव में अपनी सरकार की विफलता को स्वीकार किया है।
राज्य में शांति व स्थिरता और आम सहमति बनाने में समय लगता है। गलतियों को स्वीकार करने में व्यावहारिकता होती है। इसके लिए चुप्पी को बातचीत से बदलने की क्षमता और दूसरों की गलतियों से सीखने की इच्छा की भी आवश्यकता होती है। राहुल गांधी मणिपुर में चुनाव से पहले भी यात्रा करते रहे हैं। उन्होंने वहां की चुनौतियों को समझने की कोशिश की और बार-बार पूर्वी सरकार को इस विषय में समझाने की कोशिश भी की। अब जबकि वहां की जनता का फैसला आ गया है, मोदी सरकार के लिए यह उचित ही जान पड़ता है कि वह विपक्ष के नेता राहुल गांधी के नेतृत्व का अनुसरण करें। मणिपुर मसले का समाधान हठधर्मिता और बड़बोलेपन से नहीं, बल्कि भागीदारी और जुड़ाव के माध्यम से संभव है।