मुख्यपृष्ठग्लैमरमशहूर कोई और बाबा हो गया!-राजीव निगम

मशहूर कोई और बाबा हो गया!-राजीव निगम

अपनी बातों से दिलों में गुदगुदी पैदा करनेवाले मशहूर कॉमेडियन राजीव निगम किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। कुछ भी हो जाए वे अपना अंदाज नहीं बदलते। इसके लिए उन्हें धारा के विपरीत दिशा में भी चलना मंजूर है। होली के इस अवसर पर उनसे
श्रीकिशोर शाही ने बातचीत की। पेश है इसके प्रमुख अंश:

कहते हैं कि होली के कुछ रंग ऐसे होते हैं, जो जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ते। आपको बचपन में की गई होली की कोई ऐसी शरारत याद है, जिसे याद कर आज भी हंसी छूट जाती हो?
बचपन में की गईं होली की शरारतें भी कोई भूल सकता है भला। बहुत शरारतें किया करते थे हम। होली में कुछ भी करने का लाइसेंस रहता है। घरवाले हो या पड़ोसी या फिर मित्र-अपरिचित कोई भी हो। मुझे याद है लोग होली के दिन घर में आते थे और मां व बाबूजी के पैर छूते थे। मैं शरारत करता। मां की साड़ी पहनकर खड़ा हो जाता और कितने लोग मुझे मां समझकर मेरे पैर छूते और चले जाते। बाद में घूंघट हटाकर सामने वाले को रंग लगा देते। फिर हल्ला-गुल्ला मचता और मैं भी उन सबके साथ धमाल मचाता। इसके बाद मैं भी उनकी टोली में शामिल हो जाता और घर-घर जाकर गुझिया और पापड़ का आनंद लेता। तब होली में हर घर मुहल्ला अपना लगता था। अब उन दिनों की सिर्फ यादें ही आती हैं। मन करता है कि काश फिर उड़कर उन दिनों में चला जाता।

तो गांव की वो होली बहुत मिस करते हैं आप?
अब क्या बताएं। यह भाईचारे का त्योहार है। इसके साथ ही हुड़दंग मचाने का अपना मजा था। होली खेलते वक्त इंसान तो छोड़िए लोग गाय और कुत्ते पर भी रंग डाल देते थे और कुत्ता भी खुश हो जाता। अपने आंसू पोंछते हुए मानो कहता, ‘हमने सुना था लोग होली में भाईचारा निभाते हैं आज देख भी लिया।’

अब तो आप मुंबई के इतने मशहूर कॉमेडियन बन गए हैं। आपस में प्रतिस्पर्धा तो रहती ही है। तो कॉमेडियन की होली कितनी अलग होती है?
होली तो होली ही होती है। यह सच है कि हमलोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो काफी होती है। एक-दूसरे के प्रति जो गुबार होता है, वो हम होली के स्टेज पर निकाल देते हैं। जैसे अरे, ये दूसरे के पंचेज चुरा लेता है। ये फलां की नकल करता है। मतलब एक-दूसरे की खिंचाई करने का मौका कोई नहीं छोड़ता। मगर सारा कुछ बिना कटुता के। प्रेम-प्यार से।

कभी होली में आपको रंग लगाने के बाद किसी फैन ने जोक सुनाने की फरमाइश की है?
ये सब तो चलता रहता है। बिना रंग के और रंग के साथ भी। कभी एयरपोर्ट पर तो कभी किसी जगह जोक सुनाने की फरमाइश लोग करते रहते हैं। फिर वहीं समसामायिक मुद्दों पर कुछ बनाकर सुनाना पड़ता है। एक बार होली में जब ऐसी फरमाइश आई तो मैंने तपाक से कहा कि अरे तुम तो खुद ही बड़े टॉप के कॉमेडियन लग रहे हो, तो बंदा शरमा गया और बोला, आप भी क्या सर? आप तो मजाक कर रहे हैं।’

सुना है मौसम के साथ ही अब लोग भी रंग बदलने लगे हैं। तो दोनों में कौन ज्यादा रंग बदलता है?
अब देखा जाए तो लोग रंग बदलने में ज्यादा माहिर हो चुके हैं। इनका कोई मौसम नहीं होता। साल भर रंग बदलते रहते हैं। इनमें भी नेता का तो कहना ही क्या। कब कहां, मूड और दिल बदल जाए कह नहीं सकते। हां, मौसम जरूर अपने वक्त पर बदलता है। जैसे अब गर्मी आनेवाली है तो पता चलता है कि मौसम बदल रहा है। पहले तो होली के वक्त भी गांव में ठंडी रहती थी। हमलोग होली के दिन तक स्वेटर पहने रहते थे। होली खेलने के लिए स्वेटर उतारते थे। पहले का माहौल अलग था। कोई रिश्तेदार-मित्र रंग नहीं बदलता था, पर पिछले कुछ वर्षों से काफी चंज आ गया है। जाने किस बात पर कौन कब रंग बदल ले, कब नाराज हो जाए, कह नहीं सकते।

पहले और आज की होली में और क्या अंतर पाते हैं आप?
बहुत अंतर आ गया है। पहले एक महीने पहले से तैयारी शुरू हो जाती थी। घर की रंगाई-पुताई होती थी। गुझिया-पापड़ के लिए सामान जुटाए जाते थे। पुराने कपड़े निकाले जाते थे कि इस पर ही होली खेलनी है। इस बार कौन सा नया काम करना है, यह सोचा जाता था। हम आलू को गोदकर उस पर उल्टा गदहा, मूर्ख, नालायक, जाहिल, गंवार आदि लिखकर किसी की पीठ पर छाप देते थे। कोई बुरा नहीं मानता था। बुरा न मानो होली है में सब चल जाता था।

हमने सुना है आप सत्ता के खिलाफ काफी जोक सुनाते हैं, जिसके कारण आपको कई धमकियां भी मिली हैं?
धमकी तो बहुत से लोग देते हैं। सोशल मीडिया पर पता नहीं कहां से आ जाते हैं। हालांकि, मैने आज तक कभी भी किसी नेता पर कोई बुरी टिप्पणी नहीं की है। पर लोग सामान्य हास्य-व्यंग्य को भी सीरीयसली ले लेते हैं और धमकाते हैं कि तुम्हारा शो नहीं होने देंगे। मारने की धमकी देते हैं। गाली-गलौज करते हैं। अब ऐसे लोगों को क्या कहा जा सकता है?

सुना है पहले आप यूपी में काफी शो किया करते थे, पर अब काफी कम हो गए हैं।
इस बात को तो चार-पांच साल हो गए। तब से यूपी में शो बंद हैं। मैं पहले वहां साल में ३०-४० शो करता था। सब बंद हो गए। पता नहीं क्यों बंद हो गए। पता चला कि यूपी में जो सरकारी शो होते हैं और उसके टेंडर जिन्हें मिले हैं, उसके ईवेंट करनेवाले मेरा नाम ही नहीं डालते। अब इसी तरह वहां प्राइवेट शो भी करने लगे हैं। वे भी नाम नहीं डालते। नहीं बुलाते। कोई जोखिम नहीं लेना चाहता। हास्य व्यंग्य तो समसामयिक और वर्तमान परिष्थितियों पर ही होता है। इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पर अब होने लगी है।

लेकिन आखिर इसकी वजह क्या है?
मैंने कहा न मैं किसी के भी खिलाफ कोई बुरी बात नहीं कहता। फिर भी उन्हें बुरा लगता है। फरमान है कि तुम सत्ता, योगी, मोदी, भाजपा, बाबा आदि के बारे में कुछ भी नहीं बोलता है। अब इनके बिना क्या मजा? तो मैं कहता हूं कि ठीक है मत बुलाओ, सोशल मीडिया तो है। मैं अपनी बात वहां रखता हूं। मैं वहां पर अपना पॉलिटिकल ह्यूमर शो करता हूं। उसका एक दर्शक वर्ग तैयार हो चुका है। लोग असे पसंद करते हैं। आप आज सोशल मीडिया के दौर में इस तरह से किसी को दबा नहीं सकते।

बॉलीवुड से होली का बड़ा खास रिश्ता है। आपको किस फिल्म का होली गीत अपनी ओर खींचता है?
एक ही तो है जो दिल में भी रंग बरसा जाता है। रंगे बरसे भीगे चुनरवा ली रंग बरसे…उस गाने के बजते ही दिल झूम उठता है। उस गाने में ही रंग है। गाना बजते ही होली का एलान हो जाता है। गाना सुनते ही लोग होली के मूड में आ जाते हैं। अभी तक वैसे सैकड़ों होली के गीत आ चुके हैं और कई काफी अच्छे हैं पर बच्चन साहब की तो बात ही कुछ और है। और अगर आप दूसरा गाना पूछेंगे तो वह भी बच्चन साहब को ही समर्पित है। ‘होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा…

आज के जमाने में तो होली भी सोशल मीडिया पर सिमट सा गया है…
होली ही नहीं हर त्योहार व्हॉट्सऐप पर सिमट गया है। अब तो व्हॉट्सऐप पर ही गुझिया आ जाती है। रंग-गुलाल आ जाते हैं। पापड़ आ जाते हैं। वहीं देख लो और महसूस कर लो कि आपने उसे खा लिया है। सारे दोस्त और रिश्तेदार आ गए हैं व्हॉट्सऐप होली खेलने। बस वहां ब्रॉडकास्ट कर दिया हैप्पी होली। काम खत्म!

हां, यह तो एक बड़ा बदलाव आया है..
मैंने कहा न पहले हम पुराने कपड़े बचाकर रखते थे, पर अब तो होली के लिए नए कपड़े बनवाए और खरीदे जाते हैं। सोशल मीडिया ने भी बड़ा बदलाव कर दिया है। पहले हम फिजिकल होली खेलते थे, अब हम वर्चुअल होली खेलते हैं। व्हॉट्सऐप होली पर आ गए हैं। होली का सिंबल है गुझिया। पहले इसके लिए एक महीने से रोज थोड़ा-थोड़ा मावा जमा किया जाता था। पहले कोई मुझे कहता कि तुम ईद के चांद हो तो मैं जवाब देता कि तुम भी तो होली की गुझिया हो गए हो।

कहीं आप यह तो कहना नहीं चाहते कि अब होली बेरंग हो गई है?
अब जो समझिए। पहले कोई भी त्योहार हो हम सब मिलकर मनाते थे। जब लोग मिलते हैं तभी मजा आता है। बाकी घर में अकेले बैठकर कोई तयोहार नहीं होता। भाईचारा खत्म हो गया तो त्योहार में रंग बचेगा नहीं। ऐसे में होली के रंग फीके हो ही जाएंगे। पहले एक-दूसरे का सम्मान था। हमारे पड़ोस में मुस्लिम परिवार होता तो ईद में वहां से सेवइयां आती। पर बकरीद में वे चुप रहते कि कहीं किसी के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए। होली में हमारी तरफ से गुझिया जाती, पर हम रंग नहीं डालते थे कि किसी तरह कोई हर्ट नहीं होना चाहिए।
अब चलते-चलते एक खालिस राजीव निगम स्टाइल में एक पंच हो जाए।
ठीक है। अभी हाल ही में कुंभ खत्म हुआ है तो इस पर ही हो जाए…
सारा खर्चा किसी और ‘बाबा’ ने किया
और पॉपुलर कोई और ‘बाबा’ हो गया!!

अन्य समाचार