यू.एस. मिश्रा
बचपन में अनिच्छा से स्कूल जानेवाली सुलोचना लाटकर अपने गांव में उर्स के दौरान होनेवाले तमाशे, बैलगाड़ी की दौड़, कुश्ती और एक महीने के लिए गांव में आनेवाले सिनेमा के तंबू, जिसमें ‘प्रभात पिक्चर्स’ की हर रोज लगनेवाली अलग-अलग फिल्मों को देखने के लिए अपनी मौसी के साथ जाती और स्क्रीन के पास सबसे आगेवाली जगह पकड़ के बैठतीं। फिल्में देखने की शौकीन सुलोचना ये नहीं जानती थीं कि आगे चलकर एक दिन वे भी उसी सिनेमा के रुपहले पर्दे पर अपनी अदायगी से न केवल सबका मन मोह लेंगी, बल्कि इंडस्ट्री में एक ममतामयी मां के रूप में अपनी एक अलग पहचान कायम करेंगी।
लता मंगेशकर करती थीं सपोर्ट- ज्यादा पढ़-लिख न पानेवाली सुलोचना के गांव में प्लेग पैâलने पर उनके फौजदार पिता अपने परिवार को लेकर पांच-छह मील दूर रहनेवाले अपने मित्र बेनार्डेकर के गांव चिकोटी रहने चले गए। पड़ोस में ही रहनेवाले बेनार्डेकर से उनकी मां और मौसी अक्सर कहतीं, ‘इस लड़की का क्या करें? ये न तो घर का काम करती है और न ही स्कूल जाती है।’ इस पर बेनार्डेकर हंसते हुए कहते, ‘हम इसे सिनेमा में भेजेंगे।’ खैर, एक दिन अभिनेत्री नंदा के पिता मास्टर विनायक बेनार्डेकर से मिलने उनके घर पहुंचे। अब बेनार्डेकर ने सुलोचना की मौसी से कहा कि सुलोचना को साड़ी पहनाकर ले आओ। बेनार्डेकर के कहने पर मौसी ने सुलोचना को साड़ी पहनाकर मास्टर विनायक के सामने खड़ा कर दिया। अब मास्टर विनायक से बेनार्डेकर बोले, ‘ये हमारी लड़की है। इसे तुम्हें सिनेमा में काम देना है।’ इस पर मास्टर विनायक ने सुलोचना की तरफ देखे बगैर बेनार्डेकर से कहा, ‘इसे आठ दिन बाद मेरे पास एक चिट्ठी लेकर कोल्हापुर भेज दीजिएगा।’ आठ दिन बाद सुलोचना कोल्हापुर स्थित मास्टर विनायक की कंपनी ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ में पहुंच गर्इं। वहां पढ़े-लिखे डायरेक्टर, टेक्नीशियन और आर्टिस्ट के बीच गांव की ठेठ देहाती भाषा में बात करनेवाली सुलोचना की नकल वहां काम करनेवाले मालगुलकर साहब करते। अगर वो सामने से आ रहे होते तो उनकी नजर बचाकर सुलोचना दूसरी तरफ से निकल जाती। वहां लता मंगेशकर, मीनाक्षी, सुमति गुप्ते जैसे कई अन्य कलाकार भी थे, जो मंथली बेसिस पर काम करते थे। सुलोचना को भी ३० रुपए महीने पगार मिलता था। ज्यादा पढ़ी-लिखी न होने और गांव की भाषा बोलनेवाली सुलोचना का अक्सर वहां के मुलाजिम मजाक उड़ाते तब दुखी होकर सुलोचना एकांत में बैठकर आंसू बहाती। सुलोचना को आंसू बहाता देखकर लता मंगेशकर उन्हें समझाते हुए कहती, ‘ये लोग ऐसे ही करते हैं। मजाक करते हैं। तुम बुरा मत मानो।’ इसके बाद लता मंगेशकर गुस्से में उन लोगों के पास पहुंच जाती और उन्हें डांटते हुए कहती, ‘वो गांव से आई हुई लड़की है। तुम लोग उसका मजाक क्यों उड़ाते हो। वो ये कंपनी छोड़ के चली जाएगी।’ इस तरह लता मंगेशकर हमेशा सुलोचना को सपोर्ट करतीं। मास्टर विनायक जब मुंबई शिफ्ट हो रहे थे तो उन्होंने सुलोचना को भी मुंबई साथ चलने के लिए कहा लेकिन सुलोचना के साथ ही उनके घरवालों को मुंबई अमेरिका जाने जितना दूर लगा। अत: उन्होंने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया।
लता जी से सीखा हिंदी बोलना- पूना में एक फिल्म ‘बाला जो जो रे’ की शूटिंग के दौरान तक सुलोचना की मराठी जुबान बहुत अच्छी नहीं थी। इसलिए काफी लोगों ने डायरेक्टर-प्रोड्यूसर से कहा कि वे अपनी इस फिल्म में सुलोचना को न लें और सुलोचना भी शुद्ध मराठी जुबान न आने के कारण ये फिल्म नहीं करना चाहती थीं। खैर, जब उन्होंने अपनी ये समस्या भालजी पेंढारकर, जिन्हें वे सम्मान से बाबा कहती थीं, के सामने रखी तो उन्होंने लगभग उन्हें डांटते हुए कहा, ‘ये तो कोई बात नहीं हुई कि जुबान नहीं आती इसलिए फिल्म नहीं करनी है।’ अब उन्होंने सुलोचना को संस्कृत अंक जो मराठी में निकलता था, देते हुए उनसे कहा, ‘तुम्हें ये समझ तो नहीं आएगा लेकिन रोज सुबह पांच बजे उठ के दो घंटे इसे जोर-जोर से तुम्हें पढ़ना है।’ खैर, बाबा की बात पर अमल करते हुए उन्होंने वैसा ही किया और कुछ दिनों बाद पूना के मराठी ब्राह्मणों की तरह वे शुद्ध मराठी जुबान बोलने लगीं। फिल्म ‘औरत तेरी यही कहानी’ के दौरान जब सुलोचना को इस फिल्म के लिए साइन किया गया तब हिंदी बोलना उन्हें नहीं आता था। हिंदी सीखने के लिए उन्होंने एक शिक्षक रखा जो उन्हें हिंदी पढ़ाने और लिखाने लगा। शिक्षक भले ही उन्हें हिंदी पढ़ा-लिखा रहा था लेकिन वो उन्हें बोलना नहीं सिखा रहा था। अत: उन्होंने सोचा कि जैसे बाबा ने मराठी सीखने के लिए संस्कृत अंक जोर-जोर से पढ़ने के लिए कहा था कुछ वैसा ही उन्हें हिंदी सीखने के लिए भी करना पड़ेगा। अब इसे उनकी हिंदी भाषा को सीखने की ललक कहें या जिजीविषा हर रोज सुबह या रात को समय मिलने पर वो अपने कमरे का दरवाजा बंद कर गाना न आने के बावजूद रेडियो पर बजनेवाले लता मंगेशकर के सुर से अपना सुर मिलाते हुए जोर-जोर से गीत गातीं। लता जी किस तरह शब्दों का उच्चारण करती हैं उसे एक बार नहीं, बल्कि बार-बार बारीकी से सुनते हुए अपने अथक प्रयासों से उन्होंने अंतत: लता जी से हिंदी बोलना सीख ही लिया!