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कभी-कभी: जब शांताराम से मिले महिपाल

 यू.एस. मिश्रा

राजस्थान की मरुभूमि से निकलकर मुंबई के अरब सागर तक पहुंचने का उनका सफर बेहद दिलचस्प रहा। वैसे तो कवि बनने की इच्छा मन में लिए उन्होंने राजस्थान से मुंबई की ओर कदम बढ़ाया लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। शौकिया तौर पर स्कूल और कॉलेज के नाटकों में भाग लेते और कविताएं लिखते हुए एक दिन संयोगवश वे सिनेमा के पर्दे पर पहुंच गए, जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी।
जोधपुर के एक समृद्ध और कुलीन वैश्य परिवार में २४ नवंबर, १९१९ को जन्म लेनेवाले महिपाल जैन के बाप-दादा सभी राजसी सरकारी नौकरियों में थे। अपने दादाजी की छत्रछाया में पले-बढ़े महिपाल ने चौथी जमात में एक एकल नाटक में अभिमन्यु का ऐसा जोरदार किरदार निभाया, जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया गया। उन दिनों फिल्मों में स्त्रियां काम नहीं करती थीं इसलिए महिपाल ने अपने कॉलेज के दो-तीन नाटकों में लड़की बनकर मीराबाई और जहांआरा का किरदार निभाया। कॉलेज के दिनों से ही कविताएं लिखनेवाले महिपाल को १९४१ में दिल्ली के विराट कवि सम्मेलन का निमंत्रण मिला। हॉल में आयोजित इस कवि सम्मेलन का टिकट उस जमाने में साढ़े चार आना था। सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन, भगवती चरण वर्मा, उदयशंकर भट्ट, विद्यापति कोकिल, हृदयनारायण ‘हृदयेश’ जैसे बड़े-बड़े कवियों के साथ उन्होंने उक्त कवि सम्मेलन में काव्य-पाठ किया। उन्हीं दिनों लखनऊ के एक सेठ आनंद बिहारीलाल खंडेलवाल के साथ उन्होंने सवा सौ रुपए माहवार पर एक फिल्म ‘नजराना’ के लिए पहला अनुबंध साइन किया, जो हिंदी और राजस्थानी भाषा में बन रही थी। हिंदी और राजस्थानी भाषा में बनी फिल्म के फ्लॉप होने के बाद ९-१० वर्षों तक महिपाल को सिर्फ एक फिल्म ‘शंकर पार्वती’ में कामदेव का रोल मिला। इस फिल्म के बाद उन्हें काम के नाम पर फरेब, झूठे वादे और भरपूर आश्वासन मिले। एक रोज काम की तलाश में वे ‘राजकमल’ स्टूडियो पहुंचे। ‘राजकमल’ में प्रवेश पाना किसी भी व्यक्ति के लिए इतना सहज नहीं था क्योंकि गेट पर बैठा डेविड आनेवालों से अनगिनत सवाल पूछता। खैर, इसे उनकी किस्मत कहें या फिर संयोग उस दिन गेट पर डेविड नहीं था और वे धड़धड़ाते हुए स्टूडियो में प्रवेश कर गए। अंदर पहुंचकर उन्होंने एक आदमी से पूछा, ‘शांताराम जी कहां मिलेंगे?’ उस आदमी ने उन्हें ऊपर जाने का इशारा किया। बेरोकटोक ऊपर पहुंचने के बाद उन्होंने वहां मौजूद एक लड़के से वही सवाल फिर दोहराया तो उसने कहा, ‘सामने तो हैं।’ अब महिपाल ने देखा कि टेंश मूड में वी. शांताराम वहां बैठे हुए हैं। दरवाजे पर लगे शीशे से महिपाल को कमरे के अंदर झांकता हुआ देखकर शांताराम ने उन्हें भीतर आने का इशारा किया। महिपाल दरवाजा खोलकर वी. शांताराम के समक्ष उपस्थित हो गए। विस्मय से शांताराम ने उन्हें ऊपर से नीचे की ओर देखा और पूछा, ‘वैâसे आए?’ महिपाल बोले, ‘मैं कवि हूं, कविता और गीत लिखता हूं।’ शांताराम बोले, ‘बैठो, सुनाओ क्या लिखते हो…?’ अब महिपाल ने उन्हें अपनी दो-चार कविताएं सुना दीं। इसके साथ ही बातों-बातों में महिपाल ने कहा कि मैं फलां-फलां फिल्म में बतौर हीरो काम कर चुका हूं। अब शांताराम ने महिपाल से कहा, ‘अच्छा, तुम काम भी करोगे?’ इस पर महिपाल ने कहा, ‘साहब, काम करने के लिए ही तो आया हूं।’ अब शांताराम बोले, ‘नीचे बैठे दादा से मिल लो।’ महिपाल की समझ में नहीं आया कि किस दादा से मिलना है? खैर, केबिन से बाहर निकलने के बाद महिपाल ने वहां उपस्थित लोगों से जब दादा के बारे में पूछा तो लोग आश्चर्यचकित होकर उनकी तरफ देखने लगे। तभी उनमें से एक ने उनसे मराठी में कहा, ‘तिकडचा रूम आहे।’ मराठी महिपाल की समझ में नहीं आयी लेकिन फिर भी इशारों को समझकर वे एक कमरे में बैठे दादा के पास पहुंच गए। शांताराम जी के मैनेजर दादा ने उन्हें बैठने का इशारा किया और दूसरे कार्यों में वे व्यस्त हो गए। काफी देर बाद दादा ने महिपाल से पूछा, ‘क्या है?’ तब महिपाल ने उन्हें बताया कि शांताराम जी ने उन्हें उनके पास भेजा है। अब दादा बोले, ‘काम करोगे?’ महिपाल के ‘हां’ में सिर हिलाते ही वे आगे बोले, ‘हम ज्यादा पैसा-वैसा नहीं देते। हम सौ रुपए महीना देंगे। आपको काम करना है तो करो लेकिन पहले सोच लो।’ अब महिपाल ने कहा, ‘सोचना क्या है। मैं तो काम करने के लिए ही आया हूं।’ इस पर दादा बोले, ‘कल आ जाना। कल कॉन्ट्रैक्ट हो जाएगा।’ अगले दिन कॉन्ट्रैक्ट में बंधने के बाद ‘राजकमल’ की फिल्म ‘अंधों की दुनिया’ में मुनव्वर सुल्ताना और फिल्म ‘बनवासी’ में शोभारानी के साथ बतौर हीरो काम करनेवाले महिपाल की गाड़ी चल निकली और उन्होंने ‘श्री गणेश महिमा’, ‘संपूर्ण रामायण’, ‘वीर भीमसेन’, ‘हनुमान पाताल विजय’, ‘वीर हनुमान’, ‘जय संतोषी मां’, ‘पारसमणि’, ‘जबक’, ‘अलीबाबा और चालीस चोर’, ‘अलादीन और जादुई चिराग’, ‘नवरंग’ जैसी एक से बढ़कर एक फिल्मों में काम किया।

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