अपनी हसरतों का कसाई हो गया वह
मुसीबतों का घर जमाई हो गया वह…
दिन की जद्दोजहद की सरहद पार करके
ज़ब भी लौटता है घर
मुसीबतें तरेरतीं है निगाहेँ भर के बलभर
भला हो भी क्यों न……
भई इश्क जो कर लिया था जिम्मेदारी से,
उम्र कम थी, हौसला बड़ा था, और तन के खड़ा था
अभी इश्क के रिश्क को समझ ही रहा था…
के गलतफहमी और अति उत्साह ने जबरन रिश्ता करा दिया जिम्मेदारी से
और फिर क्या…..
ले लिए सात फेरे उम्मीद के सापेक्ष
इस वाकए का साक्षी मन था जो मुकर जा रहा है रह -रह कर
उसे आना पड़ता है हर हाल में लौट के उसी घर
अपने ठिकाने से उड़ जो गया था..
जहाँ होता था अच्छे से गुजर -बसर
जिम्मेदारी को अगर वक्त से पहले न ब्याहता,
तो यह दशा न होती.. और न यह दिशा होती उसकी
खैर वक्त के हवाले से खबर है के बदलूँगा मैं इक दिन
जमाई बाबू की जिंदगी कट रही है दिन गिन -गिन
-सिद्धार्थ गोरखपुरी