प्रमोद भार्गव
एक तीर से दो निशान!
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की भावना जो भी हो, सिंधु-लिपि की भाषा-संरचना ज्ञात करने की दृष्टि से अध्ययन-प्रोत्साहन की प्रशंसा करनी होगी। उन्होंने घोषणा की है कि सिंधु-लिपि की गूढ़ रचना का वाचन करनेवाले को एक मिलियन अमेरिकी डॉलर (८७ करोड़ रुपए) पुरस्कार में दिए जाएंगे। हालांकि, इस अनसुलझी गुत्थी को सुलझाने का उनका कोई पुरातत्वीय समाधान खोजना न होकर द्रविड़ वैचारिक संस्कृति को उत्तर भारतीय फलक पर प्राचीनता के रूप में स्थापित करना भी हो सकता है? इस कूटनीतिक रणनीति के मनो-अनुकूल परिणाम निकलते हैं तो वे तमिल राजनीति में लंबे समय तक बने रहने का मार्ग प्रशस्त करने में सफल बने रह सकते हैं। वैसे भी तमिलनाडु भाषाई विवाद का रण स्वतंत्रता के बाद से ही रहा है। स्टालिन अर्थात द्रमुक अब चाहता है कि वर्तमान में पाकिस्तान क्षेत्र में स्थित सिंधु घाटी की लिपि का संबंध तमिल से स्थापित हो जाए, तो यह धारणा स्थापित हो जाएगी कि संस्कृत नहीं, अपितु भारत की प्राचीन भाषा एवं लिपि तमिल है और उत्तर भारतीय आर्य ही दक्षिण भारत के द्रविड़ हैं।
दुनिया का भाषाई संसार जितना अद्वितीय और व्यापक है, लिपियों का संसार भी उतना ही रहस्यमयी विचित्रता के रूप में सर्वव्यापी है। किसी भी भाषा के लिखने के प्रकार या विधि को लिपि कहते हैं। लिपियों का इतिहास भी मानव सभ्यता के विकास के साथ आगे बढ़ा है। विकसित होती सभ्यता और लिपियों के विविध आरंभिक रूप शैल चित्रों और पुरातत्वीय उत्खनन में मिलते रहे हैं। चूंकि आदिम युग से लेकर अब तक विश्व के मानचित्र पर अनेक भाषाएं, बोलियां अस्तित्व में आकर विलोपित होती रही हैं। भारत में उद्भव और विलोपन की यह क्रियाशीलता कहीं अधिक रही है। इस तथ्य की सिद्धि इस कहावत से होती है, ‘कोस कोस पर बदले पानी, बदले चार कोस पर वाणी।‘ इसी क्रम में कहा जाता है कि भाषा को लिपिबद्ध करने के सबसे पहले प्रयास के रूप में दुनिया का पहला लिखित सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘ऋग्वेद‘ भारत का है। इसकी भाषा संस्कृत और लिपि देवनागरी है। हालांकि, देवनागरी का आदि स्रोत ब्राह्मी लिपि मानी जाती है। यह भी भारत की अत्यंत प्राचीन लिपि है।
स्टालिन ने जॉन मार्शल की मूर्ति का भी अनावरण किया है। मार्शल ने ही १९२१ में सिंधु घाटी की सभ्यता के पहले उत्खनन की अध्यक्षता की थी। मार्शल ने अवधारणा दी थी कि सिंधु घाटी सभ्यता वैदिक आर्य सभ्यता या सारस्वत सभ्यता से भी पूर्व की है। सिंधु लिपि ईसा से २,५०० से ३,५०० वर्ष प्राचीन मानी जाती है। सिंधु-लिपि और हड़प्पा सभ्यता को परस्पर एक-दूसरे का पर्याय माना जाता है। इस परिक्षेत्र का विस्तार मोहन जोदड़ो, कालीबंगा, लोथल और तमिलनाडु तक है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान भी इसी में शामिल हैं। हालांकि, अब इसका समय ७,००० ईसा पूर्व माना जाने लगा है। इस प्राचीन भव्य एवं संस्कृति नगरीय सभ्यता के उत्खनन में मिली मुहरों, शिलालेख और मिट्टी के बर्तनों पर अनेक चित्रात्मक आकृतियां उत्कीर्ण हैं। विचित्र लिखावट के इसी समूह को सिंधु घाटी की लिपि या सिंधु-लिपि कहा जाता है। इसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, जबकि इसी से मिलती- जुलती प्राचीन चीनी (मंदारिन) इजिप्ट, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई और मेसोपोटामियाई पढ़ ली गई हैं। इन्हें आधुनिक सुपर कंप्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्तियों को बारीकी से पढ़कर विवेचित किया और मार्कोव विधि से पढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली। स्टालिन को यह भ्रम है कि यदि सिंधु-लिपि पढ़ ली जाती है तो संभव है, इसकी प्राचीनता संस्कृत से पूर्व की भाषा के रूप में सिद्ध हो जाए? अब तक ऋग्वेद को छोड़ दें तो हड़प्पाकालीन कोई धर्म या समाजशास्त्रीय ग्रंथ भी नहीं मिला है, जिससे सिंधु-लिपि को किसी भाषा की लिपि मान लिया जाए।
भाषाओं की उत्पत्ति और धारणाएं
एक समय विद्वान भारत और यूरोप की सभी भाषाओं के परिवार को ‘आर्यभाषा परिवार‘ कहते थे। मैक्समूलर, जेस्पर्सन आदि ने ‘भारोपीय परिवार‘ का नाम ‘आर्य परिवार‘ दिया था, क्योंकि इन लोगों का विचार था कि इन सभी भाषाओं को बोलनेवाले आर्य थे, जो आरंभ में किसी एक ही स्थान पर रहते थे और एक ही प्रजाति के थे। इस सिलसिले में डॉ. रामविलास शर्मा का कहना है कि ‘जब जर्मनी में राष्ट्रवाद का अभ्युदय हुआ तो उनका मानना था कि हम लोग आर्य हैं और भारतवासी आर्य भाई हैं इसलिए उन्होंने जो भाषा परिवार गढ़ा था, उसका नाम ‘इंडो जर्मेनिक‘ रखा। बाद में प्रâांस और ब्रिटेन वाले आए तो उन्होंने कहा कि ये जर्मन सब लिए जा रहे हैं, सो उन्होंने उनका नाम ‘इंडो-यूरोपियन‘ (भारोपीय परिवार) रखा। मार्क्स जिस समय १८५३ में भारत संबंधी लेख लिख रहे थे, उस समय उन्होंने भारत के लिए लिखा है कि यह देश हमारी भाषाओं और हमारे धर्मों का आदि स्रोत है। अतएव १८५३ तक यह धारणा नहीं बनी थी कि आर्य लोग भारत में बाहर से आए। १८५० के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्य सुदृढ़ हुआ और प्रâांसीसी-जर्मनी भी यूरोप तथा अप्रâीका में अपना साम्राज्य विस्तार कर रहे थे, तब उन लोगों को यह लगा कि ये लोग हमसे प्राचीन सभ्यता वैâसे हो सकते हैं? तब उन्होंने यह सिद्धांत गढ़ा कि एक आदि इंडो यूरोपियन भाषा थी, उसकी शाखाएं थीं। एक शाखा ईरान होते हुए यहां पर पहुंची और फिर इंडो एरियन जो थी, वह इंडो-ईरानियन से अलग हुई और फिर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी यह सिलसिला चला। हम इस धारणा को नहीं मानते, क्योंकि भाषाओं के इतिहास से इसकी पुष्टि नहीं होती?
इस दुर्भावनापूर्ण मानसिकता के साथ ही मूल भारतीय आर्यों की सच्चाई को झुठलाने का षड्यंत्र प्रारंभ हो गया। जॉन मार्शल की धारणा इसी अभिमत को पुष्ट करने वाली साबित हुई। मार्शल ने यह भी कहा कि इस सभ्यता के चिह्न द्रविड़ सभ्यता के चिह्न मालूम होते हैं इसलिए सिंधु घाटी में बोली जानेवाली भाषा द्रविड़ हो सकती है। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो से मिले अभिलेखों में अंकित चित्रलिपियों के आधार पर गोंडी भाषा के विशेषज्ञ तिरू मोतीरावण का दावा हेै कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की लिपियों की समानता गोडी भाषा से है, अतएव सिंधु घाटी के लोगों की भाषा द्रविड़ पूर्व की भाषा थी। ऋग्वेद के अनुसार दुर्योण ‘कुयव असुरों‘ की राजधानी थी, जिसे जला दिया गया था। गोंड समुदाय के लोग आज भी पृथ्वी को माता के रूप में पूजते समय ‘कुयव‘ से संबंधित मंत्र का जाप करते हैं इसलिए इन परंपराओं से लिपि के सूत्र खोजे जा सकते हैं। इधर इतिहासकार बीवी सुब्बा रायप्पा का मानना है कि ‘सिंधु भाषा नहीं वरन एक प्रकार की संख्यात्मक लिपि है, जैसा कि सिंधु घाटी सभ्यता की मुहरों और अभिलेखों पर अंकित कलाकृतियों में उत्कीर्ण संख्याओं, प्रतीकों और संकेतों से स्पष्ट होता है। सिंधु घाटी के लोग व्यापक रूप से अपने दैनिक क्रिया-कलापों व व्यवसाय के लिए दशमलव, जमा और गुणात्मक संख्यात्मक प्रणाली को प्रयोग में लाते थे।
सशक्त और समृद्ध भाषा!
‘संस्कृति के चार अध्याय‘ पुस्तक में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि ‘द्रविड़ शब्द भारत में प्रजाति वाचक नहीं स्थान वाचक रहा है। यदि प्रजाति की यूरोपीय परिभाषा की दृष्टि से देखा जाए तो गुजरात और महाराष्ट्र में प्रधानता आर्यवंश की होनी चाहिए। किंतु प्राचीन भारतवासी यह नहीं मानते थे। द्रविड़ स्थान का विशेषण था और ‘पंचद्रविड‘ में पुराणकार द्रविड़, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात इन पांचों को गिना करते थे। भाषाओं को लेकर भी आर्यों और द्रविड़ों के बीच कोई मतभेद नहीं था। द्रविड़ ऋषि यज्ञ के पुरोहित होते थे। उन्होंने शास्त्रों की भी रचनाएं की हैं। इसी प्रकार तमिल के संगम साहित्य की रचना में बहुत से ब्राह्मण ग्रंथकरों का योगदान था। वैसे भी द्रविड़ शब्द संस्कृत का शब्द है, जिसका निर्माण तमिल के वजन पर किया गया था। मनु ने द्रविड़ शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए किया है, जो द्रविड़ देश में बसते थे। कुमारिल भट्ट ने उसका प्रयोग भाषा की सूचना देने के लिए किया है, ‘यथा-आंध्र-द्रविड़-भाषा।‘ हमारे पूर्वजों ने द्रविड़ शब्द का अर्थ प्रजाति नहीं रखा था। हमारे लिए भी यही उचित है कि हम यूरोप से आए हुए प्रजातिवाद का जहरीला अर्थ अपने शब्दों में न ठूंसे।‘
सिंधु लिपि को पढ़ने में अनेक समस्याएं बाधा पैदा करती हैं। दुनिया की ज्यादातर लिपियों में अक्षर कम होते हैं। देवनागरी में ५२ अक्षर हैं तो अंग्रेजी में मात्र २६ हैं, जबकि सिंधु लिपि में करीब ४०० अक्षर, चिह्न या संकेत हैं। इसके निशान भी विचित्र रूपों में हैं। ये देखने में मोहक चित्रों की तरह सजीले तथा रूपवान (स्टाइलिश) होने के साथ ही इनमें परिवर्तित होते उतार-चढ़ाव (वेरिएशन) बहुत हैं। इन छवियों में बैलों के चिह्न बहुतायत में हैं। इन्हें कई भाषाशास्त्री युवाओं द्वारा बैलों को नियंत्रित करने के प्रतीकों के रूप में देखते हैं। जो भाषाई परिप्रेक्ष्य में पृथक हैं। लोथल और कालीबंगा की खुदाई के बाद से हड़प्पा-मोहन जोदड़ो से जुड़ी सिंधु-सारस्वत सभ्यता को ७,००० से १,५०० ईसा पूर्व माना जाने लगा है। इस लिपि के ४०० अक्षरों के बारे में माना जाता है कि इनमें कुछ वर्णमाला के स्वर-व्यंजन, मात्रा संख्या हैं तो कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संयुक्त रूप है इसलिए इसे सशक्त व समृद्ध भाषा होने के दावे किए जाते हैं।
कैसी-कैसी मानसिकता!
अब विचारणीय बिंदु है कि जब लोग अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर इस लिपि को पढ़ने के प्रयासों में लगे थे, तब इन्हें प्रोत्साहित क्यों नहीं किया गया? दरअसल, भारतीय अनुसंधान परिषद् (आईसीएचआर) जिस पर पहले अंग्रेज काबिज थे, बाद में वाम वैचारिक बौद्धिकता के लोग विराजमान हो गए, जो पाश्चात्य अवधारणाएं कहीं खंडित न हो जाएं, इस मानसिकता के चलते सिंधु लिपि को पढ़ने से बचते रहे। अतएव सिंधु लिपि को पढ़ने के कोई सार्थक प्रयास किए ही नहीं गए। जबकि सिंधु घाटी से जुड़ी लिपियों के लगभग तीन हजार अभिलेख उपलब्ध हैं। असल में इस लिपि में संस्कृत के शब्दों के साथ ऋग्वैदिक चिह्न भी अंकित हैं। संस्कृत के शब्दों में श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूशिका, पग, पंच, मूषक, पितृ, अग्नि, सिंधु, पुरम, ग्रह, यज्ञ, इंद्र, मित्र इत्यादि शामिल हैं। अगस्त्य वही ऋषि हैं, जो नारद के कहने पर दक्षिण भारत गए और फिर कभी उत्तर की ओर लौटे ही नहीं। इन्होंने तमिल भाषा का व्याकरण लिखा था। दरअसल, इस लिपि को पढ़ने से इसलिए टाला जाता रहा कि कहीं उसकी प्राचीनता और अधिक प्रमाणित न हो जाए? ऐसा होता है तो ऋग्वेद कालीन वैदिक सभ्यता तथ्यात्मक रूप में अन्य सभ्यताओं से प्राचीन सभ्यता सिद्ध हो जाएगी? आर्यों का हमलावर के रूप में बाहर से आने का अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा गढ़े गए प्रपंच पर तो पानी फिरेगा ही, उत्तर भारतीय आर्य एवं द्रविड़ युद्ध की धारणा भी ध्वस्त हो जाएगी?
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं। उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)