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संडे स्तंभ- विश्व विरासत दिवस पर विशेष : हार्बर लाइन का पहला टर्मिनस था ‘रे रोड’!

विमल मिश्र

रे रोड स्टेशन का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि ‘हेरिटेज’ स्टेशन होने के बावजूद उसे वह नाम और रुतबा नहीं मिल पाया, जो इस श्रेणी में आनेवाले मुंबई के अन्य चार स्टेशनों छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस, चर्चगेट, बांद्रा और भायखला को हासिल हुआ। यह हाल है उस स्टेशन का, जो १२ दिसंबर, १९१० से ३ फरवरी, १९२५ के बीच हार्बर लाइन का पहला टर्मिनस हुआ करता था।

मुंबई में रे रोड का सदी से भी ज्यादा पुराना पुल अब इतिहास बन चुका है… पर देश की स्वतंत्रता के इतिहास का हिस्सा बनकर। नया केबल ब्रिज बनाने के लिए रे रोड ब्रिज जब ढहाया जा रहा था, तब मुंबई महानगरपालिका के हेरिटेज कंजर्वेशन विभाग के इंजीनियरों ने खूबसूरत शीर्ष वाले उसके नक्काशीदार स्तंभों को देखा, नंबर देकर एक- एक कर सावधानी से उन्हें अलग किया और बहुत सावधानी से अगस्त क्रांति मैदान में लाकर संजो दिया, जिसके मेकओवर का काम उन दिनों जारी था। आज ये स्तंभ अगस्त क्रांति मैदान का हिस्सा हैं- शहर में देश की स्वतंत्रता के सबसे महत्वपूर्ण स्मारक का द्वार बनकर।
रे रोड स्टेशन मुंबई के उन सिर्फ पांच स्टेशनों में शामिल है, जिन्हें ‘ग्रेड १’ की मुंबई की राष्ट्रीय महत्व वाली ‘विरासत सूची’ में स्थान हासिल है। पर इसके विरासत रूप के बखान के लिए अब तीन चिह्न ही यहां बच रहे हैं, स्टेशन के दोनों ओर खुरचा हुआ मध्य रेल का मूल नाम जीआईपीआर (ग्रेट इंडियन पेंनिन्सुला रेलवे), स्टेशन मास्टर की मेज पर शान से धरा तत्कालीन ‘गवर्नमेंट ऑफ बॉम्बे’ का पेपरवेट और बुकिंग ऑफिस में एक पुरानी घड़ी। छत, मेहराबों और आयताकार भित्ती स्तंभों से युक्त पत्थरों से निर्मित इस स्टेशन की सुंदरता दरअसल उसकी सादगी में ही छिपी है। यह स्टेशन पहले १९९५ की ग्रेड-१ सूची में था। और २०१२ में ग्रेड-२ ए लिस्ट का हिस्सा बना।
हेरिटेज स्टेशन
रे रोड स्टेशन का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि ‘हेरिटेज’ स्टेशन होने के बावजूद उसे वह नाम व रुतबा नहीं मिल पाया जो इस श्रेणी में आनेवाले मुंबई के अन्य चार स्टेशनों छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस, चर्चगेट, बांद्रा और भायखला को हासिल हुआ। रेलवे के डेढ़ सौ साल के जलसे के दौरान हुई रोशनी को छोड़कर इस स्टेशन को जिक्र करने लायक कोई जलसा भी याद नहीं। आज यह रोजाना औसतन महज १८,००० यात्रियों और रेलवे के खजाने में डेढ़-दो लाख रुपए जमा करानेवाले दो प्लेटफॉर्मों व एक फुट ओवरब्रिज वाले छोटे स्टेशन के रूप में जाना जाता है। पूरी तरह ढका दो प्लेटफॉर्मों वाला पूरा स्टेशन एक आर्क के नीचे है, जिसके ऊपर सीधे पटरियों के समानांतर स्टेशन के प्रशासनिक और ऑपरेशन रूम हैं। यह हाल है उस स्टेशन का, जो १२ दिसंबर, १९१० से ३ फरवरी, १९२५ के बीच हॉर्बर लाइन का पहला टर्मिनस होता था। यहां और कुर्ला के बीच ट्रेनें चला करती थीं। १९२५ का यह वही दिन है, जब हार्बर लाइन को कुर्ला और छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (विक्टोरिया टर्मिनस) के बीच देश की पहली विद्युत चालित ट्रेन चलाने का गर्व हासिल हुआ। पर यही वक्त है, जब रे रोड से टर्मिनस का दर्जा छिन गया। दिसंबर, १९२६ से तो ठाणे तक ईएमयू ट्रेनें चलनी शुरू हो गई थीं- कुर्ला तक हार्बर लाइन पर और इससे आगे मेन लाइन पर। आज हार्बर लाइन के सभी स्टेशनों पर ट्रेनें रुकती हैं, पर १९३४ में ऐसा नहीं था। कई ट्रेनें शिवड़ी, रे रोड और डाकयार्ड रोड नहीं रुका करती थीं। १९३५ में स्टेशन के प्लेटफार्मों का कंक्रीटीकरण हुआ।
हुतात्मा बाबू गेनू का नाम देने की मांग
मौजूदा स्टेशन का रूप रे रोड को १९१२ में मिला और इसे मुंबई के गवर्नर रहे एडोनल्ड मैके इलेवंथ लॉर्ड रे (१८८५ – ९०) के नाम पर ‘रे रोड’ बुलाया जाने लगा। लॉर्ड रे मूलत: हॉलैंड के थे और विभिन्न राजनीतिक और प्रशासनिक पद संभालने के बाद मुंबई के गवर्नर बनकर आए थे। १८९४ में उन्होंने ब्रिटेन में भारत से संबंधित अंडर सेक्रेटरी के रूप में भी काम किया। हुतात्मा बाबू गेनू इसी इलाके के थे, जिनके नाम पर इस स्टेशन का नाम बदलने की मांग कई बार राजनीतिक स्तर पर की जा चुकी है।
भायखला, ताड़देव, मझगांव, लालबाग, परेल, शिवड़ी, नायगांव, वर्ली, प्रभादेवी जैसी जगहों के साथ रे रोड भी मजदूर बहुल इलाकों में से है, जहां बसे हुए लोगों की बड़ी तादाद सातारा, कुलाबा और रत्नागिरी से आए हुए लोगों की है। १९वीं सदी के अंत में इन जिलों में विकराल सूखा पड़ा था और उन्हें मुंबई की कपड़ा व अन्य मिलों और गोदियों में रोजगार के लिए आना पड़ा था। आज भी इस स्टेशन का ज्यादातर इस्तेमाल इस झोपड़पट्टी बहुल क्षेत्र में रहनेवाली दूसरी जगहों पर काम करनेवाली बाइयां और मिल कामगार ही करते हैं। स्टेशन के ठीक बगल में एक फोर्जिंग मिल है। ब्रिटानिया कंपनी की भी मौजूदगी है। लोहे के सामानों की दुकानें और गोदाम यहां प्रचुरता से हैं। शिप ब्रेकिंग उद्योग से संबंधित कारोबार के लिहाज से भी यह महत्वपूर्ण स्थान है।
हार्बर लाइन की पटरियों और सड़क के ऊपर बने १९१४ के जमाने का ऐतिहासिक रे रोड ब्रिज-जो भायखला को मझगांव की गोदी और दारूखाना इंडस्ट्रियल इस्टेट से जोड़ता है, का आधार हॉकरों और झुग्गी-झोपड़ियों के लगातार अतिक्रमण से निरंतर कमजोर होता गया और वह पुल के साथ ही खुले गुसलखाने, बेडरूम और खेल के मैदान के रूप में भी उपयोग में आने लगा था। आस-पास रहनेवालों ने भी स्टेशन के मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचाया। सितंबर, २०१९ में एक ट्रक के धक्का मारने से पुल का एक खंभा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। ७० से अधिक झोपड़ियों को हटाकर इसकी मरम्मत करने के बाद इसे खोल दिया गया। कुछ समय पहले डेढ़ लेन वाले २८ मीटर लंबे इस पुल को तोड़कर उसकी जगह २८० मीटर लंबा तीन लेन वाला केबल ब्रिज बनाने का काम शुरू हुआ। इस पर १४२ करोड़ रुपए का खर्च आने का अनुमान है। इस पुल के डेढ़ वर्ष में बन जाने की संभावना है। नए पुल की बढ़ी हुई चौड़ाई और ऊंचाई को देखते हुए इसके लिए इसका टिकट काउंटर मौजूदा जगह से हटाकर उत्तर की दिशा में कुछ मीटर दूरी पर खिसका दिया गया है। इसी तरह प्लेटफॉर्मों से इसे जोड़ने वाले रैंप भी। यह सारा काम एक विरासत संरक्षण विशेषज्ञ की निगरानी में किया जा रहा है, ताकि स्टेशन के मूल स्वरूप को कोई नुकसान न पहुंचे।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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