अनिल तिवारी
अबकी बार १४ लाख ९० हजार! इस बार बात १५ लाख की नहीं है। १० वर्षों के बाद वादे में १० हजार की कमी आई है, जबकि होना तो ये चाहिए था कि यह आंकड़ा कुछ और बढ़ता। जैसे महंगाई का आंकड़ा बढ़ा है, टमाटर-प्याज और मसालों की कीमतें बढ़ी हैं, सिलिंडर से लेकर सैंडिल तक के भाव चढ़े हैं वगैरह… वगैरह…। इन सबकी चढ़ती कीमतों से हीनता का शिकार होकर रुपया जरूर टूट गया पर सरकार का ‘वादाई विश्वास’ नहीं टूटा। तभी तो कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से एक नया वादा ठोक कर दावा कर दिया कि आगामी २५ वर्षों में वे देश के प्रत्येक नागरिक की आमदनी को औसतन ७ गुना से अधिक बढ़ा देंगे। अर्थात जो ‘पर वैâपिटा इनकम’ इस समय २ लाख रुपए सालाना है वो तब तक बढ़कर १४.९० लाख हो जाएगी। पर इसके लिए पांच नहीं, बल्कि जनता को तकरीबन २५ वर्षों का इंतजार करना होगा। मतलब, २०४७ तक का इंतजार! २०१४ में अपने चुनावी भाषण में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने काला धन वापस लाकर प्रत्येक हिंदुस्थानी के खाते में १५-१५ लाख रुपए डलवाने का वादा किया था। आज उस वादे को १० वर्षों का समय बीत चुका है। १५ लाख आना तो छोड़िए, नीतियों को सरकार ने इस कदर ढील दी कि इस कालखंड में शायद आम जनता की जेब से ही १५ लाख रुपए अतिरिक्त लुट गए होंगे। आज हालात यह है कि पहले से लाल टमाटर भी लाल-लाल आंखें दिखाने लगा है। आम इंसान तो छोड़िए, बर्गर किंग जैसी रईसों की अंतर्राष्ट्रीय फूड चेन भी अब टमाटरों को छुट्टी दिलाने की पक्षधर हो गई है। टमाटर की कीमतों में ४ गुना से अधिक वृद्धि होने के बाद कंपनी ने अपने सभी भारतीय आउटलेट्स में बर्गर में टमाटर देना बंद कर दिया है और बाकायदा आउटलेट्स के बाहर नोटिस चस्पा कर दी है कि टमाटरों को छुट्टी चाहिए। सिर्फ बर्गर किंग ही नहीं, बल्कि मैकडोनल्डस और सबवे जैसे इंटरनेशनल ब्रांड्स भी टमाटर को टाटा कर चुके हैं। उन्होंने भी अपने मेन्यू से टमाटरों की छुट्टी कर दी है।
खैर, आम जनता तो टमाटरों का सपना पहले ही देखना बंद कर चुकी थी। पर हमारी सरकार जो है कि वो जनता को सपनों से बाहर आने ही नहीं देना चाहती। जैसे ही जनता ने टमाटरों का सपना देखना बंद किया, सरकार ने तुरंत ५० रुपए प्रति किलो में ‘सरकारी’ टमाटर की घोषणा कर दी। उपभोक्ता मामलों के विभाग ने एनसीसीएफ और एनएएफईडी को ५० रुपए/प्रति किलो की दर से टमाटर बेचने का निर्देश दे दिया। अब जनता यह सोचने लगी कि यह काम तो पहले भी हो सकता था? जनता कोई प्रतिक्रिया देती, उसकी निद्रा टूटती, सपना भंग होता, उससे पहले ही सरकार नया सपना लेकर आ गई। २५ वर्षों में १४.९० लाख आमदनी का नया सपना अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से दिखाया है। उन्होंने दावा किया है तो दावे में दम भी होगा। जनता उस दावे को मानने को तैयार क्यों न हो? उस पर कल अधिकृत तौर पर भी सरकार ने ‘एक्स’ (ट्विटर) पर दावा किया। जब सरकार की ओर से वीडियो शेयर करके दावा किया जाए कि अब भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। उसने रूस, इटली, प्रâांस, ब्राजील और यूके को पछाड़कर यह उपलब्धि हासिल की है और आगामी ५ वर्षों में वो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है तो भला, पीएम की बात पर विश्वास किसे नहीं होगा?
१०वीं से ५वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनते समय कितनों के हिस्से ‘अर्थ’ आया और कितनों के हाथों ‘व्यवस्था’, इस पर माथापच्ची करने से बेहतर तो यही है कि अगले पांच साल इंतजार कर लिया जाए। भले ही खुदरा महंगाई आसमान छू ले। १५ दिन पहले खत्म हुई तिमाही में १५ वर्षों का उच्च स्तर गांठ ले और ७.४४ प्रतिशत खुदरा महंगाई दर्ज कर ले और दो दिन पहले रुपया ऐतिहासिक टूट का रिकॉर्ड बना ले। तब भी वादा है, तो लोगों को भरोसा करना ही चाहिए। भले ही अच्छे दिनों का वादा चूर-चूर हो गया हो। ‘सबका साथ, सबका विकास’ धरा का धरा रह गया हो। हर साल २ करोड़ रोजगारों में बेरोजगारी का ‘बे’ जुड़ गया हो। सामाजिक समरसता का ‘रस’ सूख गया हो। राष्ट्रीय सुरक्षा ताक पर हो। सब कुछ निजी हाथों में जा रहा हो, पड़ोसियों से रिश्ते और भी बिगड़ चुके हों, पर वादों और दावों पर प्रश्न खड़े नहीं हो सकते। जाति-पांति, पंथ और प्रांत की लड़ाई जारी रहनी चाहिए।
उपरोक्त हालातों में नोटबंदी, जीएसटी के बाद इंस्पेक्टर राज के युग में २५ वर्षों बाद के वादों की पूर्तता का कौन विचार करता है? १० वर्षों में शिक्षा का इंप्रâास्ट्रक्चर कितना बढ़ा, हेल्थ सेक्टर में क्या सुधार हुआ? यह पूछने का शायद अब वक्त किसी के पास नहीं बचा है। ऐसे हालातों पर हम मूक-बधिर आज सवाल खड़े नहीं रह सकते, गहराई तक विचार नहीं कर सकते तो क्या गारंटी है कि २५ वर्ष बाद वो अपनी रीढ़ पर खड़े रह पाएंगे। नि:संदेह हमारी तब तक रीढ़ ही टूट चुकी होगी। अगर कोई बच भी गया तो नई ‘व्यवस्था’ में उसका कोई ‘अर्थ’ ही नहीं रह जाएगा। तब ‘निरर्थक’ जनों के अर्थपूर्ण सवालों का क्या और कितना महत्व होगा, इस पर अभी कम-से-कम विचार तो करना होगा। क्योंकि तब न तो वादा करनेवाला होगा, न ही सवाल पूछन्ोवाला।