तन्हा रहना

मुमकिन नहीं है तन्हा रहना
अंदर से खाली कितना
बाहर से सवाली कितना
क्या जाने कितना रोया
आंखों में है लाली कितना
उसके बिन तो रात न कटती
दीवारें भी डसने लगती
चुपचाप मैं रोता बस
न करता मैं कोई बहस
जो दिल जाने और रूह जाने
कितनी तड़प होती हैं इसमें
सांसें भी बैचेन सी लगती
आंधी दिल पे उतर ही जाती
मुमकिन नहीं है तनहा रहना
इन राहों में यूंही गुजरना।
-मनोज कुमार
गोंडा, उत्तर प्रदेश

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