विमल मिश्र
मदनपुरा से सिर्फ कैफी आजमी की ही यादें नहीं जुड़ी हैं, भिंडी बाजार और मोहम्मद अली रोड के साथ यह पूरा इलाका उर्दू शायरी व अदब का केंद्र रहा है। ‘कैफी आजमी वॉक’ ने मुंबई के लोगों को बीते युग की इस भूली-बिसरी विरासत से परिचित होने का अवसर दिया।
‘कैफी साहब यहीं किसी खोली में रहते थे।’ उर्दू मरकज के डॉयरेक्टर जुबैर आजमी तंग गली के एक मकान के पास रुके और फरमाने लगे। बीते इतवार ‘कैफी आजमी वॉक’ कराते हुए घंटों वे मदनपुरा और आस-पास के इलाकों के उन ठिकानों पर घुमाते रहे, जहां से इस जन्नत-नशीं मशहूर-ओ-मा’रूफ उर्दू शायर का करीबी नाता रहा। इस ‘वॉक’ का मुख्य आकर्षण रहीं खुद कैफी आजमी की पुत्री मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी।
मौलाना आजाद रोड की तंग गलियों में घूमते हुए शबाना की आंखों में यहां बीते दिनों की पुरानी यादें झिलमिलाने लगीं, ‘फटेहाली के दिन थे। मां शौकत आजमी नाटकों में काम करने अक्सर बाहर हुआ करतीं और मैं पिता के साथ उनके साथी कपड़ा मिल मजदूरों के कंधों पर सवार होकर मजे से केक खाते घूमा करती।’ कैफी ने अपनी मशहूर नज्म ‘मकान’ यहीं रहते लिखी। निवारा हक्क समिति के एक्टिविस्ट के रूप में शबाना का जो बाद में अवतार हुआ वह इन्हीं अनुभवों की देन है। उनके पति जावेद अख्तर भी यहीं से निकलने वाले उर्दू अखबार ‘इंकलाब’ में अुनवादक का काम करते थे। जुबैर आजमी कई सालों से मशहूर भिंडी बाजार फेस्टिवल का आयोजन कर रहे हैं। ‘वैâफी आजमी वॉक’ उनकी उर्दू-मराठी तहजीब यात्रा का ही हिस्सा है।
साहित्य और संगीत का गढ़
क्लेयर रोड का ‘सारवी’ रेस्टोरेंट ‘कैफी आजमी वॉक’ में हमारा अगला मुकाम था, जहां के लजीज कबाबों का लुत्फ उठाने वालों में कभी फिल्म स्टार अशोक कुमार भी हुआ करते थे। अडेल्फी चैंबर बरसों तक मशहूर उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो का घर रहा। यह उस जमाने की बात है, जब भिंडी बाजार और मदनपुरा उर्दू शायरी, अदब और पत्रकारिता का केंद्र था। उनकी रौनक में चार चांद लगाने के लिए ‘वजीर’ व ‘सारवी’ जैसे होटल, ईरानी कैफे व रेस्टोरेंट्स, ‘अवामी इदारा’ जैसी लाइब्रेरियां और कैसर बाग व साबू सिद्दीक ग्राउंड जैसी जगहें हुआ करती थीं, जहां घंटों अदबी बहसों और मुशायरों के दौर चलते थे। इनमें शरीक हुआ करते थे हिंदुस्थान के अलावा पाकिस्तान के फैज अहमद ‘फैज’, कतील शिफाई, अहमद नसीम कासमी जैसे मशहूर शायर। मंटो, कैफी आजमी, सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी और जां निसार अख्तर, मुंशी प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, मजरूह सुल्तानपुरी, नौशाद, न.म. राशिद, फैज अहमद ‘फैज’, कतील शिफाई, अहमद नसीम कासमी, मिराजी, कृष्ण चंदर, राजेंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, महेंद्रनाथ, कमाल अमरोही, ख्वाजा अहमद अब्बास और जावेद अख्तर चाय के कप सुड़कते हुए बहसें करते जहां घंटों खर्च किया करते।
यह इलाका देश के अलग-अलग हिस्सों से आए गवैयों, कव्वालों, संगीतकारों, कलाकारों और अभिनेताओं की भी पनाहगाह रहा। लता मंगेशकर, अशोक कुमार, राज कपूर, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, सलिल चौधरी, बलराज साहनी, भारत भूषण, जयराज, नादिरा, हबीब तनवीर और फारूक शेख जैसे संगीत और फिल्मी दुनिया के अनमोल रत्न भिंडी बाजार और उसके घराने से अपने ताल्लुक पर नाज करते रहे।
यह इलाका आज भी इस देश में उर्दू पत्रकारिता और प्रकाशन का गढ़ बना है। कम्युनिस्ट और प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के साथ इंडियन पीपुल्स थिएटर मूवमेंट ‘इप्टा’ यहां खूब पनपा और फला-फूला। एक उर्दू अखबार के बुजुर्ग पत्रकार ने गहरी सांस भरकर बताया, ‘वजीर’ जैसे ही विदा हुआ, खान-पान के लिए मशहूर भिंडी बाजार और मदनपुरा के चाय घरों और कॉफी हाउसों की खास किस्म की रौनक रुखसत होने लगी और फिर धीरे-धीरे अदब का माहौल भी। भिंडी बाजार क्लस्टर डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट के कारण अब तो यहां का नक्शा भी बदल गया है।
सावरकर से जिन्ना तक
नागपाड़ा सहित यह पूरा इलाका कभी मुंबई के अंडरवर्ल्ड से अपने रिश्तों के लिए भी जाना जाता था। तब से बहुत फर्क आया है। ‘खड़ा पारसी’ की प्रतिमा अभी भी खड़ी है, पर स्थानीय महाराष्ट्र कॉलेज की जो इमारत इलाके में सबसे ऊंची हुआ करती थी, गगनचुंबियों के साये में अब बौनी दिखने लगी है। यहां का सांप्रदायिक सौहार्द आज भी मिसाल माना जाता है, जिसका पुल है सरदार वल्लभ भाई पटेल रोड पर घनी मुस्लिम रिहाइश और हिंदू आबादी के मध्य, बीच सड़क पर मौजूद नागेश्वर महादेव।
जीजामाता उद्यान, जे.जे. और नायर जैसे अस्पताल, आर्थर रोड व भायखला जेल, नौसेना गोदी और मुंबई सेंट्रल स्टेशन जैसी जगहों को समेटे मदनपुरा के आस-पास का इलाका भी अहमियत में कम नहीं। पड़ोसी मस्जिद अपनी नामचीन मस्जिदों और दरगाहों से ज्यादा ‘मुंबादेवी’ जैसे मंदिरों के लिए जाना जाता है। कर्नाक और वाडीबंदर पर आई मालगाड़ियां हमेशा भरती और खाली होती रहती हैं और बाजार, दुकानों और गोदामों से ठसाठस भरे रहते हैं। रेडीमेड गार्मेंट, मेवे-मसालों, बिस्कुट-खिलौने, गुड़-खजूर, धागा-होजरी, अगरबत्ती, तेल, स्टेशनरी, प्लास्टिक-तार्पोलीन, केमिकल छोटे-बड़े हर सामान की किफायती खरीद के लिए यही आखिरी ठिकाना माना जाता है। बास्केट बॉल और फुटबॉल के कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी यहीं पनपे हैं।
जलावतनों की बस्ती
नागपाड़ा और आसपास के इलाकों में रहनेवाले अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश के उन मुसलमानों के वंशज हैं, जो १८५७ के गदर के बाद अंग्रेजों के कोप और धंधे-रोजगार में आई मंदी से बचने के लिए यहां आकर बस गए थे। मुंबई की विशाल कपड़ा मिलों ने बांहें पसारकर उनका स्वागत किया। ये आज भी अपने पुरखों की तरह हघकरघे डाले या बफिंग, मोल्डिंग और लेदर बैग, पर्स और सूटकेस बनाने जैसे धंधों में लगे हैं। १९८० में बाजार की मार से जब हथकरघे बदहाल हुए तो यहां के बुनकर भिवंडी जाकर बसने लगे। उनकी कमी पूरी की १९९० के दशक में आए बिहारी मुसलमानों ने। नागपाड़ा और आस-पास बसे लोगों में एक बड़ी तादाद महाराष्ट्र के सातारा, कुलाबा और रत्नागिरी से आए हुए लोगों की भी है जो १९वीं सदी के अंत में इन जिलों में पड़े विकराल सूखे से पनाह के लिए मुंबई आए थे और उन्हें कपड़ा व अन्य मिलों और गोदियों ने रोजगार दिया था। सूरती मोहल्ला में चिंदी के थोक बाजार में इस नाम की बस्ती भी यहां है, गुजराती और केरल के मलबारी भी यहां मिलेंगे।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)