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संडे स्तंभ : ब्लावाट्स्की लॉज था आजादी के परवानों का ठिकाना

विमल मिश्र

१८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की योजना और १९३० में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की रणनीति ब्लावाट्स्की लॉज में हुई बैठकों में ही तैयार की गई थी। इस ‌ऐतिहासिक संस्था की प्रवर्तक थीं एक विदेशी महिला हेलेना पैट्रोवना ब्लावाट्स्की, जिन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी के माध्यम से विश्व को नैतिकता और आपसी भाईचारे का संदेश दिया और पश्चिमी देशों को भारतीय अध्यात्म एवं दर्शन से परिचित कराया।

ऐतिहासिक स्थलों और घटनाओं से भरपूर ग्रांट रोड और चर्नी रोड जैसे ठिकाने मुंबई ही नहीं, देश में भी कम ही होंगे। मणि भवन, जो महात्मा गांधी का निवास होने से स्वतंत्रता आंदोलन की धुरी बन गया था। कांग्रेस हाउस, जो किसी ‌जमाने में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्यालय होता था और उसका ‘कांग्रेस रेस्त्रां’। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जन्मभूमि गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज और ‘भारत छोड़ो’ की प्रेरणा भूमि गवालिया टैंक (अगस्त क्रांति मैदान)। प्रखर स्वतंत्रता सेनानियों से जुड़े तिलक मंदिर, सरोजिनी सदन, कस्तूरबा कुटीर, विट्ठल सदन और दादाभाई मंजिल जैसे स्थान। इन्हीं के बीच एक दो मंजिला इमारत है, आज भी जिसकी बुलंदी इसकी उम्र करीब डेढ़ सौ वर्ष होने की चुगली खाने नहीं देती। मालाड स्टोन से निर्मित यह इमारत है ब्लावाट्स्की लॉज-एनी बेसेंट व रुक्मिणी देवी अरुंडेल की थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय। इसका नाम रूसी दार्शनिक और लेखिका हेलेना पेत्रोव्ना ब्लावाट्स्की के नाम पर रखा गया है, जो इस विश्वव्यापी संगठन की संस्थापक थीं और १९वीं सदी के आखिर में यहां रहीं भी।
ब्लावाट्स्की लॉज की स्थापना मैडम ब्लावाट्स्की ने १८७८ में अमेरिकी सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी कर्नल हेनरी स्टील आल्कॉट के साथ मिलकर की थी। सोसायटी के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने यहीं से ‘दि थियोसॉफिस्ट’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। १९ दिसंबर, १८८२ को मद्रास (चेन्नई) के अड्यार क्षेत्र में स्थानांतरित होने से पहले यही भारत में सोसायटी का मुख्यालय होता था। बाद में इसकी अन्य शाखाएं बनारस और दूसरे शहरों में भी खुलने लगीं।
ऑपेरा हाउस के पास प्रâेंच ब्रिज के किनारे हाजी कसम वाडी के सामने मौजूद ब्लावाट्स्की लॉज ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित कई बैठकों की मेजबानी की। ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गए इस लॉज ने स्वतंत्रता के लिए प्रयास करने वाले लोगों के बीच बौद्धिक चर्चा, प्रेरणा और समन्वय के केंद्र के रूप में कार्य करने के साथ औपनिवेशिक शासन के खिलाफ कार्रवाई की योजना और रणनीति बनाने के लिए भी मंच प्रदान किया। १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की योजना यहीं हुई बैठकों में ही तैयार की गई थी। नवंबर, १८८९ में महात्मा गांधी ने भी यहां आकर मैडम ब्लावाट्स्की और एनी बेसेंट से भेंट की थी। एनी बेसेंट-जो १९१७ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष हुर्इं-१८९० के बाद मैडम ब्लावाट्स्की की आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में लॉज की प्रधान बनीं। गांधी जी से मैडम ब्लावाट्स्की की इस भेंट के बारे में जो ब्योरे उपलब्ध हैं, उनके अनुसार सोसायटी के दो सदस्यों ने गांधीजी से कहा था कि वे भगवद्गीता पढ़ें। लॉज में हुई महत्वपूर्ण बैठकों में ३ जून, १९३० को भी हुई वह बैठक भी मानी जाती है, जिसमें महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए रणनीति बनाई गई थी।
ब्लावाट्स्की लॉज अब थियोसॉफिकल सोसायटी, अडयार के अंग्रेजी अनुभाग का हिस्सा है। इसके एक हिस्से में ७,००० से अधिक पुस्तकों की थियोसॉफिकल सोसायटी लाइब्रेरी भी है। साथ में एक मीटिंग रूम और हॉल भी, जिसे सेमिनार, व्याख्यान, संगीत और नृत्य कक्षाओं और संगीत कार्यक्रमों के लिए किराए पर दिया जाता है।
थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना विश्व बंधुत्व की भावना से की गई थी। इसने भारतीयों को अपने धर्म के मूल को जानने समझने तथा उसका आदर करने के लिए प्रेरित किया। मैडम ब्लावाट्स्की का जन्म १२ अगस्त, १८३१ को दक्षिण रूस के यूक्रेन प्रदेश के एकाटरीनो स्लाव में रूसी-जर्मन मूल के एक अति संपन्न परिवार में हुआ था। बालपन से ही उनमें मन:शक्तियां एवं पारलौकिक ज्ञान अद्भुत ढंग से विकसित होने लगे थे। हर समय वे आध्यात्मिक चिंतन एवं ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों के बारे में मनन-चिंतन में लीन रहतीं। पति निकिफोर ब्लावाट्स्की के साथ विलासितापूर्ण दांपत्य जीवन उन्हें रास नहीं आया और वे उनका घर छोड़ कर पिता के पास लौट आर्इं। २० वर्ष की आयु से उन्होंने एशिया, यूरोप और अमेरिका के अनेक देशों का विश्व भ्रमण शुरू किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि प्राचीन ब्रह्मज्ञान एवं सनातन धर्म के ज्ञान की प्राप्ति भारत व तिब्बत में जाकर ही संभव हो सकती है। तिब्बत की यात्रा उन दिनों बहुत दुरूह और खतरनाक थी। २२ वर्ष की आयु में १८५३ से लेकर १८६८ तक वे यहां तीन बार आर्इं और काफी सामग्री लेकर लौटीं।
मैडम ब्लावाट्स्की को भारत के प्रति विशेष प्रेम था। वे १८५२, १८५५-५७ और १८८५ से कुछ पहले भारत आई थीं। इस काल में उन्होंने यहां के प्रमुख धर्मस्थलों के भ्रमण के साथ ऋषि-परंपरा वाले ब्रह्मज्ञान, अध्यात्म एवं धर्मग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया। कर्नल ऑलकॉट के साथ मिलकर ८ सितंबर, १८७५ को न्यूयॉर्क में थियोसॉफिकल सोसायटी नामक संस्था का गठन किया, जो अपरंपरागत धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों के लिए समर्पित थी। १८८५ के भारत प्रवास के दौरान बीमार होने से इलाज के लिए उन्हें प्रस्थान करना पड़ा। यही उनकी भारत से अंतिम विदाई थी। लंदन को अपना मुख्य पड़ाव बनाकर वहां के ‘ब्लावाट्स्की लॉज’ में रहते लेखन के साथ सोसायटी का प्रचार कार्य करते हुए सितंबर, १८८७ में उन्होंने अपना दूसरा मासिक पत्र ‘लूसिफर’ भी निकाला। १८८८ में उनकी ‘दि सीक्रेट डॉक्टिन’ और १८८९ में ‘द वॉइस ऑफ साइलेंस’ व ‘दि की टु थियोसॉफी’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुर्इं।
मैडम ब्लावाट्स्की ने जीवन के ३२ वर्ष विश्व भ्रमण में बिताए। इनमें लगभग १० वर्ष भारत में रहीं। ८ मई, १८९१ को लंदन में उनका देहांत हो गया। उनके शिष्यों को विश्वास है कि उनकी आत्मा ने उनका जीर्ण-शीर्ण शरीर छोड़कर सर्वोच्च तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा की देह में प्रवेश किया।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

 

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