विमल मिश्र
प्राच्यविद्या के अध्ययन और शोध के लिए के.आर. कामा ओरियंटल इंस्टीट्यूट सरीखी संस्था आज विश्वभर में इक्का-दुक्का ही होगी। बहुत कम लोगों को जानकारी है कि फोर्ट की अपोलो स्ट्रीट पर जिस जगह यह इस्टीट्यूट स्थित है वहां होता था मुंबई का पहला बर्फघर।
पारसी, ईरानी और प्राच्यविद्या के अध्ययन और शोध के लिए के. आर. कामा ओरियंटल इंस्टीट्यूट जितनी समृद्ध लाइब्रेरी (२६ हजार पुस्तकें, दो हजार पांडुलिपियां, दो हजार जिल्द किए जरनल) विश्वभर में इक्का-दुक्का ही होंगी। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि फोर्ट की अपोलो स्ट्रीट पर आज जिस जगह यह इंस्टीट्यूट है कभी लोहे की चक्करदार सीढ़ियों वाला गुंबदनुमा एक गोल-सा बर्फघर (१८४३) हुआ करता था, उस जमाने का एक अजूबा। इसे जाने-माने पारसी प्राच्यविद, भाषाविद, शिक्षक, नारी शिक्षा के प्रखर हिमायती और सुधारवादी के. आर. कामा (खरशेदजी रुस्तमजी कॉमा) की स्मृति में कायम किया गया था।
के. आर. कामा
खरशेदजी दादाभाई नौरोजी और मानोकजी करसेटजी के साथ बॉम्बे पारसी सुधारकों का ऐसे समूह का हिस्सा थे, जिसने धार्मिक सुधार के साथ महिलाओं की स्थिति सुधारने, उन्हें शिक्षित करने और उन्हें राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल करने के लिए कई कदम उठाए। इसके लिए उन्हें पारसी पंचायत से कई बार पंगे लेने पड़े। उन्होंने १८५१ में स्थापित प्रमुख सुधारवादी प्रकाशन ‘रास्ट गोफ्तार’ के प्रकाशन में भी हाथ बंटाया। वे मेरवानजी प्रâामजी पांडे द्वारा स्थापित एमिलियोरेशन सोसाइटी के भी सदस्य बने, जो सुधारकों और रूढ़िवादी पारसियों में मेल-मिलाप की दृष्टि से कायम किया गया था। वे बॉम्बे की एशियाटिक सोसायटी से भी जुड़े रहे। धार्मिक सुधार के उद्देश्य से उन्होंने ‘जरथोष्टी दीन-नी खोल करनारी मंडली’ (पारसी धर्म पर शोध को बढ़ावा देने के लिए सोसायटी) की स्थापना की। वे एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन के भी संस्थापक निदेशक थे।
वैâलेंडर सुधार में रुचि रखनेवाले कामा ने १८६० के दशक में जोरास्ट्रियन वैâलेंडर प्रकाशित किया।
कलकत्ता में कुछ समय व्यापार करने के बाद के. आर. कामा १८५० में इंग्लैंड गए। वापस मुंबई लौटकर कुछ समय उन्होंने दादाभाई नौरोजी के साथ व्यापारिक साझीदारी की। उसके बाद यूरोप में इंग्लैंड और पेरिस में अवेस्तान और पहलवी सहित प्राच्यविद्याओं की पढ़ाई की, फिर नौरोजी और अपने भाई मंचेरजी होरपोसजी कामा के साथ लंदन और लिवरपूल में कारोबार करने लगे। उनकी यह कारोबारी फर्म यूरोप में किसी भारतीय द्वारा कायम पहला ऐसा उद्यम माना जाता है।
१८३१ में मुंबई के एक धनी कुलीन परिवार में जन्मे के. आर. कामा की शिक्षा-दीक्षा एलफिंस्टन कॉलेज में हुई। उनके दो विवाह हुए। भारतीय स्वतंत्रता की जननी मानी जानेवाली मैडम भीकाजी कामा उनके सालिसिटर पुत्र रुस्तम के. आर. कामा की अर्धांगिनी थीं। यह विवाह सुखद नहीं रहा।
के. आर. कामा का १९०९ में देहांत हो गया।
अमेरिका से आते थे
बर्फ के जहाज
के. आर. कामा ओरियंटल इंस्टीट्यूट का बहुत रोचक इतिहास है। इंस्टीट्यूट आज जहां है, वहां कभी मुंबई का पहला बर्फघर होता था। यहां पौने दो सौ साल पहले मुंबई के रईस हलक ठंडा करने आया करते थे। यह वह काल था, जब बर्फ केवल गोरों को मुअस्सर होती थी। यह बर्फ अमेरिका और यूरोपीय देशों से खास तौर पर संरक्षित कर मंगवाई जाती थी। बाद में तो इसकी ‘खेती’ भी होने लगी।
लगभग दो सदी पहले १८३४ की गर्मियों की बात है। मुंबई में शिद्दत की गर्मी पड़ रही थी। शहर में उस समय के सबसे बड़े रईस सर जमशेदजी जीजीभॉय ने तमाम इष्ट-मित्रों को खाने पर बुलाया और उनके सामने परोसी एक बिलकुल नई चीज- ठंडी लजीज आइसक्रीम। इस आइसक्रीम के स्वाद ने कुछ ऐसा जादू किया कि मुंबई के तमाम जेंटिलमेन ने फौरन फोर्ट इलाके में बर्फघर बनाने का प्रस्ताव रखा और इसके लिए हाथों-हाथ दस हजार रुपए इकठ्ठा कर डाले। इस तरह मुंबई का पहला बर्फघर बनकर तैयार हुआ १८४३ में।
इस बर्फघर को आबाद रखने के लिए बोस्टन (अमेरिका) के ट्यूडर नामक कारोबारी से चार आने प्रति पाउंड की दर से बर्फ आयात करने का समझौता किया गया और एक के बाद एक बर्फ लदे जहाज बर्फघर के ठीक सामने की गोदी पर आकर लगने लगे, पर यह शौक बहुत जल्दी भारी पड़ने लगा। वजह, सात समंदर पार से आनेवाली बर्फ का बहुत ही मंहगा पड़ना। जब यह रईसों को भी बूते के बाहर लगने लगी तो १८७७ में जनता के एक प्रतिनिधिमंडल ने गवर्नर के पास जाकर गर्मियों में बर्फ की कमी की शिकायत की। लिहाजा, आयात बंद हुआ और शहर में ही बर्फ के कारखाने कायम कर इस शौक का इंतजाम किया जाने लगा। बर्फघर अब बेकार पड़कर अब गोदाम के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। १८७० के एक दिन इसे तोड़ ही दिया गया। १८८० में बैरमजी जीजीभॉय ने बेलार्ड इस्टेट की कॉलीकट स्ट्रीट में नानाभॉय अंबिको आइस पैâक्टरी कायम की। बदले रूप में ही सही, इसका अस्तित्व आज भी कायम है।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)