विमल मिश्र
मुंबई सिमेंट-कंक्रीट की बस्ती है, खेत-खलिहानों की नहीं, पर बसाहट के दिनों से ही इसने एक अजब खेती के लिए भी नाम कमाया है। यह खेती है नमक की। वैâसे होती है यह खेती और कैसी है इस खेती से जुड़े लोगों की जिंदगानी यह हमने सामने जाकर देखी।
ईस्टर्न एक्सप्रेस-वे पर दोनों ओर तनी लंबवत इमारतों के बीच धूसर रंग के खेतों की मीलों लंबी कतार चली गई है। पास जाने पर दिखते हैं वॉटर चैनलों के जरिए खाड़ी के गंदले पानी से अधभरे, गंध मारते तालाब और पुआल से ढंके ढूहे। इन ढूहों की उधड़ गई परतों के बीच छिपे हैं सफेद और मटमैले रंग के नमक के ढेले। पैरों में खास तरह के जूते पहिने कुछ लोगों ने खेतों से इकट्ठा कर इन ढेलों का ढेर लगाया है। फैक्टरियों में परिष्करण और पैकिंग के लिए भेजने के वास्ते।
हम मुलुंड के नमक के एक खेत के पास आ पहुंचे हैं। पर्यावरण ऐक्टिविस्ट नंदकुमार उर्फ नंदू पवार हमें टिन से बने एक घर के दरवाजे ले आए हैं। चारपाई पर औंधे पड़े वजीलाल मितना हौले-हौले हमें इस विचित्र खेती की बारीकियां समझाने लगे हैं।
जब हम यहां हैं तब नमक की खेती के सीजन (जो अक्टूबर से मई तक चलता है) के शुरुआती दिन हैं। डहाणू और गुजरात से काम करने परिवार सहित आए मजदूरों ने खेतों के किनारे झोपड़ियां बनाकर आबाद होना शुरू कर दिया है। पवार बताते हैं, ‘गर्मी में खेत और बारिश में तालाब। मैंने इन खेतों में हाथों से इतनी बड़ी-बड़ी मछलियां पकड़ी हैं।’ बहरहाल, हालत अलग है। मुंबई की दूसरी खार भूमियों की तरह मुलुंड की इस जगह के भी एक बड़े हिस्से पर झोपड़पट्टियों का कब्जा है। मुलुंड, नाहुर, भांडुप, कांजुरमार्ग, घाटकोपर, चेंबूर, वडाला, अणिक, तुर्भे, मालवणी, दहिसर, मीरा-भाइंदर और विरार स्थित नमक के बहुत से खेतों में नमक का उत्पादन बरसों पहले ही बंद हो चुका है। कहीं-कहीं तो यह जमीन अब मवेशियों के लिए घास उगाने के काम में आ रही है। यहां साल-दर-साल आनेवाले प्रवासी पक्षियों की तादाद भी घटती जा रही है।
जिंदगी भी और मौत भी
‘सूरज सर पर, हर ओर फैले नमक की चौंधियाहट और बदन में खुश्की व जलन। सरल काम नहीं है नमक के खेत में काम करना, नमक कामगार वजीलाल मितना बताते हैं, ‘इतनी कड़ी धूप बर्दाश्त करना आम आदमी के वश की बात नही।’ खेतों के पास ही झोपड़ी बनाकर परिवार के साथ रहनेवाले वजीलाल मूलत: दमण के रहनेवाले हैं, पर उनके साथियों में ज्यादातर मजदूर डहाणू और दादरा व नगर हवेली से आए हुए हैं। वडाला के नमक के खेतों में ६,००० से १०,००० रुपए की नौकरी पर ४० कामगारों के साथ तन जला रहे ७० वर्ष के मनीष दादा बताते हैं, ‘लगातार खुश्की में काम करते-करते हाथ और पैर बिल्कुल सख्त हो गए हैं।’
नमक के कारोबार में लगे इन नमक मजदूरों की त्रासदी का भान बहुत ही कम लोगों को होगा। सुबह साढ़े छह बजे से दोपहर और शाम को रोजाना आठ से १० घंटे जूझते हुए ये मजदूर खेतों के आस-पास ही झोपड़ियां बनाकर रहते हैं, जहां न साफ-सफाई है, न शौचालय की सुविधा। यह धंधा भी उन्हें सिर्फ नवंबर से मई तक काम देता है। बारिशों के दिनों में जब नमक बह जाता है, तब उन्हें गांव लौटकर दूसरा काम ढूंढ़ना पड़ता है।
कच्छ में नमक बनानेवाले अगड़िया समुदाय के लोगों की टांगें तो नमक में लगातार काम करने के कारण असामान्य रूप से पतली और इस कदर सख्त हो जाती हैं कि मौत के बाद चिता की आग भी उन्हें भस्म नहीं कर पाती। इन टांगों को अलग से नमक की बनाई गई कब्रों में दफन किया जाता है, ताकि वे गल सकें। ये मजदूर लगभग ५० डिग्री तापमान में घंटों काम करते हैं, लेकिन पेशाब न लगे इस वजह से पानी बहुत कम पीते हैं या तो पीते ही नहीं। महिलाओं को तो १० घंटे तक पेशाब रोके रहना पड़ता है। नतीजा किडनी, गुर्दे, रक्त, त्वचा और मूत्र संबंधी कई तरह के शारीरिक विकारों के रूप में सामने आता है। जिंदगी भर खेतों में नमक बनानेवाले मजदूरों को कई बार अंतिम नींद मिलती है नमक के ही खेतों में। मुंबई की ३० वर्षीया सोनम दुम्ब्रे ने एक विशेष टाइलट बनाकर इन मजदूरों की परेशानी को कुछ हद तक दूर किया है।
नमक कर, नमक विभाग और मिठ चौकियां
मुंबई में नमक का इतिहास इस द्वीपसमूह पर पहली मानवीय बसाहट जितना ही पुराना है। कोली मछली पकड़ते थे, कुनबी चावल उगाते थे, भंडारी ताड़ी उपजाते थे और आगरी नमक। समुद्र और खाड़ियों वाला यह इलाका नमक की खेती के लिए बिल्कुल उपयुक्त था। ज्वार आते ही मैदानों में पानी भर जाता और भाटा के समय रुका हुआ खारा पानी सूखकर अपरिष्कृत लवण बन जाता। बांध, खरीना, तापवणी, कुंडी आदि के जरिए उसका उत्पादन सुनियोजित ढंग से होने लगा था। धीरे-धीरे नमक मुंबई की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग बन गया। खार, खारघर, खारकोपर, विक्रोली जैसे इलाकों ने अपना नाम ही नमक (खार) से पाया। मध्यकाल में यह राजस्व प्राप्ति का मुख्य अंग बन गया। मुंबई के नमक की प्रसिद्धि जबलपुर और नागपुर तक थी।
नमक का धंधा धीरे-धीरे इतना फायदेमंद हो गया कि गोरी सरकार ने जनता पर ‘नमक कर’ ही लगा दिया। नमक की तस्करी जोरों से होने लगी, जिसे काबू करने के लिए ‘मिठ चौकियां’ कायम की गर्इं। कस्टम अफसर तैनात कर सागरीय व्यापार पर निगरानी बढ़ा दी गई। नमक के उत्पादन और बिक्री पर नजर रखने के लिए अलग से नमक विभाग और नमक आयुक्तालय बने।
आज देश भर में उत्पादन, गुणवत्ता नियंत्रण और सप्लाई पर निगरानी के लिए बने नमक विभाग का मुख्यालय जयपुर में और मुंबई, चेन्नै, कोलकाता और अमदाबाद में नमक उपायुक्त के कार्यालय हैं। चीन और अमेरिका के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा नमक उत्पादक देश है। आजादी के वक्त नमक आयात करनेवाला देश अब नमक का निर्यात भी करने लगा है। इस दौरान उसका वार्षिक उत्पादन दस गुना बढ़कर सवा दो करोड़ टन से ज्यादा हो चुका है।
उद्योगों में खपता है मुंबई का नमक
रुका हुआ पानी, उस पर उड़ते मच्छर और मुंह पर हाथ रखने को मजबूर कर देनेवाली बदबू, मुंबई के किसी भी नमक के खेत में जाइए आम दृश्य मिलेगा। जाहिर है, ऐसी हालत में बननेवाला नमक क्वालिटी में वैâसा होगा! क्वालिटी खराब होने की वजह से मुंबई में पैदा होनेवाला नमक मुख्यत: उद्योगों में ही खपता है। देश में नमक की ७५ फीसदी जरूरत को पूरा करता है गुजरात, खासकर कच्छ के रन में बननेवाला नमक।
नमक सत्याग्रह
महात्मा गांधी का नमक सत्याग्रह जारी था कि यकायक २७ वर्ष की एक दक्षिण भारतीय महिला अंग्रेज पुलिस के सारे इंतजामों को धता बताते हुए वडाला साल्ट डिपो में घुस आई। इस तरह नमक कानून तोड़ने के मामले में बांबे प्रेसिडेंसी में गिरफ्तार होनेवाली पहली महिला बनीं कमलादेवी चट्टोपाध्याय, जानी-मानी स्वतंत्रता सेनानी। जुहू के नमक सत्याग्रह में कस्तूरबा गांधी ने भी जमनालाल बजाज, जानकीदेवी बजाज और बालासाहेब गंगाधर खेर के साथ भाग लिया था। नमक सत्याग्रह के दौरान महिलाओं के समूह हर रोज समुद्र का पानी लाते थे, कांग्रेस हाउस व दर्जनों अन्य स्थानों पर इसे सिमेंट के चूल्हों पर उबालकर प्रतिबंधित नमक बनाकर उसे बेचते थे। यह ‘प्रâीडम सॉल्ट’ कहलाता था। (जारी)
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)