विमल मिश्र
मुंबई
लेखक, कवि, पत्रकार और समाज सुधारक करसनदास मुलजी ने मुंबई के सबसे प्रभावशाली धर्मगुरू को उनके भ्रष्ट और अनैतिक आचरण को लेकर बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट में घसीटा था और शानदार जीत हासिल कर देशभर में मिसाल कायम की थी। १८६२ में लड़ा गया यह मुकदमा ‘महाराज मानहानि मुकदमे’ के नाम से भारतीय न्यायिक प्रणाली के सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक मुकदमों में दर्ज है।
‘यह धर्मशास्त्र का नहीं, नैतिकता का सवाल है। जो नैतिक रूप से गलत है वह धार्मिक रूप से कभी सही नहीं हो सकता।’ फैसला था बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट (अभी बंबई हाई कोर्ट) के न्यायाधीश आर्नल्ड का, जो उन्होंने २२ अप्रैल, १८६२ को वैष्णव धर्मगुरु जदुनाथजी बृजरतनजी महाराज द्वारा पत्रकार -लेखक करसनदास मुलजी के विरुद्ध दाखिल मानहानि के आरोप खारिज करते हुए कहे। चर्चित फिल्म ‘महाराज’ इतिहास के पन्नों में छिपे इस महत्वपूर्ण प्रकरण को सामने लाई है।
जदुनाथजी बृजरतनजी महाराज १९वीं सदी के उत्तरकाल में मुंबई के पुष्टिमार्गीय वैष्णव वल्लभ संप्रदाय के सबसे प्रभावशाली धर्मगुरु थे, जिनकी देशभर में तूती बोलती थी। उस काल में इस तरह के महाराजों का देश भर में बोलबाला था। १८६५ में लिखी गई किताब History Of The Sect Of Maharajas, Or Vallabhacharyas In western India के अनुसार उस दौर में मुंबई में अलग-अलग हवेलियों में इस तरह के ८ या १० महाराज अपने परिवारों के साथ रहा करते थे। उनकी परिचर्या के लिए होती थीं महिलाएं। जदुनाथजी महाराज स्वामी वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित इस गौरवशाली संप्रदाय के इसी तरह के महाराज थे। वे खुद को भगवान कृष्ण का अवतार बताते। पूजा के लिए वहां आने वाले उसकी चौखट पर सिर झुकाते। वे ऊंचे सिंहासन पर बैठा करते। भक्त उन्हें छूकर अपनी आंखों पर हाथ फेरते, उनकी खड़ाऊं की पूजा करते और उन पर धन लुटाते।
जदुनाथजी महाराज के प्रति अंधश्रद्धा ऐसी थी कि भक्त उनकी चरणरज को भी प्रसाद की तरह ग्रहण करते। सुबह जब वे स्नान करते, उस वक्त सैकड़ों भक्त उनका शरीर पोंछने के लिए खड़े रहते और उनके नहाए हुए गंदे पानी का श्रद्धा के साथ आचमन करते। बचा हुआ पानी दूसरे भक्तों के काम आता। महाराज के भोजन से बचा जूठन और पान-सुपारी भी प्रसाद की तरह खाया जाता। इस सब की अलग-अलग फीस थी। दर्शन की पांच रुपए, पैर छूने की २० रुपए, पैर धोने की ३५ रुपए, झूला झुलाने की ४० रुपए, लेपन करने की ४२ रुपए, महाराज के साथ बैठने की ६० रुपए, महाराज के चबाए हुए पान-सुपारी की १७ रुपए, नहाए हुए पानी की १९ रुपए और एक कमरे में रहने की ५० से ५०० रुपए। भक्त बीमार पड़ने या अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर उन्हें घर भी बुला सकते थे। महाराज उस शख्स के सीने पर पैर रखकर उसे ‘पापों से मुक्ति’ दिलाते। इसकी फीस एक हजार रुपए तक भी हो सकती थी। महाराज को विवादास्पद बनाने वाली इससे भी बड़ी बात थी ‘चरण सेवा’। कहा जाता था भक्त खुद अपनी पत्नी व बेटियों को महाराज के पास चरण सेवा के लिए ले जाया करते थे। हवेली में दोपहर में पूजा करने के लिए आर्इं सैकड़ों महिलाएं जब जदुनाथजी महाराज के पैर छूतीं, उसमें से अपनी पसंद की महिला का हाथ धीरे से दबाकर वे उसे दोबारा मिलने के लिए संकेत करते। यह बेहद सम्मान की बात मानी जाती थी। महाराज की ‘प्रणयलीला’ को कोई भक्त देखना चाहे तो मोटी फीस देखकर झरोखों से देख सकता था।
करसनदास मुलजी उस काल की मुंबई के जाने-माने लेखक, कवि और समाज सुधारक होने के साथ एक पत्रकार भी थे। अपनी वाग्दत्ता को लेकर भी करसनदास मुलजी को भी जब यह अनुभव हुआ तो खुद एक वैष्णव होते हुए भी उन्होंने इन ‘कुकर्मों’ के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया। १८५८ में जब दयाल मोतीराम के एक मुकदमे के सिलसिले में बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट ने जीवनलालजी महाराज को गवाह के रूप में बुलाया, तो उन्होंने उपस्थित होने से ही इनकार कर दिया। उन्होंने वैष्णव पुजारियों को अदालत में पेश होने से स्थायी छूट देने के लिए लंदन से आदेश मांगा और अपने अनुयायियों को तीन शर्तों पर सहमत होने को विवश किया। पहली, कोई भी वैष्णव महाराज के खिलाफ नहीं लिख सकता। दूसरा, कोई भी वैष्णव उन्हें अदालत में नहीं ले जा सकता और तीसरी, अगर कोई उन पर मुकदमा करता है तो उसके खर्च का वहन अनुयायियों को करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि महाराज को अदालत में पेश न होना पड़े। करसनदास ने ‘सत्यप्रकाश’ में कई लेख लिखकर जबरदस्ती के इस समझौते को ‘दासता का समझौता’ करार दिया।
महाराज मानहानि मुकदमा
१८६१ में ‘सत्यप्रकाश’ में प्रकाशित करसनदास के लेख ‘हिंदुओनो असल धर्मा हलना पाखंडी मातो’ (‘हिंदुओं का असली धर्म और मौजूदा पाखंडी नजरिया’) ने तो तहलका ही मचा दिया। लेख में आरोप लगाया गया था कि जदुनाथजी महाराज महिला भक्तों का यौन शोषण करते हैं। एक और गंभीर आरोप यह था कि इस संप्रदाय में कहा जाता था कि पुरुष भक्त अपनी श्रद्धा को पत्नी को महाराज के साथ सोने के लिए राजी करने के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। मामला इतना उछला कि लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार तक को हिला दिया। करसनदास को महाराज के अनुयायियों से मौत की धमकियां मिलने लगीं। जदुनाथजी महाराज ने उन पर ५०,००० रुपए के मानहानि का केस दायर कर दिया।
मुकदमा २५ जनवरी, १८६२ को शुरू हुआ तो बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट में पांव धरने की जगह नहीं थी। आनाकानी के बावजूद जदुनाथ महाराज को अदालत में पेश होना पड़ा। वादी की ओर से ३१ और प्रतिवादियों की ओर से ३३ गवाहों से जिरह की गई। प्राच्यविद विद्वान जॉन विल्सन और भारतीय चिकित्सक डॉ. भाऊ दाजी लॉड की इस जानकारी ने तो भूचाल ही पैदा कर दिया कि जदुनाथजी महाराज सिफलिस नामक भयानक यौन रोग से ग्रस्त हैं। महाराज की काली सच्चाई उनके कट्टर अनुयायियों को भी विचलित कर गई। महिलाओं सहित कई गवाहों के भी बयान सामने आने लगे कि महाराज कामुक हरकतों में लिप्त थे, या उन्होंने उनका यौन शोषण किया था। २२ अप्रैल, १८६२ को अपने फैसले में महाराज के मानहानि के आरोप को खारिज करते हुए न्यायाधीश आर्नल्ड ने कहा, ‘यह धर्मशास्त्र का सवाल नहीं है। यह नैतिकता का सवाल है। जो नैतिक रूप से गलत है वह धार्मिक रूप से कैसे सही हो सकता है!’ उन्होंने कुप्रथाओं की निंदा करने और उन्हें उजागर करने के लिए करसनदास और उनके सहयोगियों की सराहना की। अदालत ने उन्हें ११,५०० रुपए का मुआवजा भी दिलवाया।
रूढ़िवाद व कुप्रथाओं के विरुद्ध जेहाद
२५ जुलाई, १८३२ को गुजरात के भावनगर के एक गुजराती पुष्टिमार्गीय वैष्णव परिवार में जन्मे करसनदास में बचपन से अंधविश्वास, पोंगापंथ और संस्थागत धार्मिक अधिकारों को लेकर घृणा पैदा थी। एलफिंस्टन कॉलेज के अपने अध्ययन काल में करसनदास छात्र समाज द्वारा चलाई जाने वाली गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली के सक्रिय सदस्य के रूप में रूढ़िवादी सोच के खिलाफ आवाज उठाते हुए वे नारी शिक्षा के पक्ष में और धूमधाम से होने वाली शादियों व छाती पीटने की अंतिम संस्कार की रस्म जैसी धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों, कुप्रथाओं व रूढ़िवाद के विरोध में आक्रामकता से लिखा करते थे। इससे समाज के साथ खुद उनका परिवार भी उनका विरोधी बन गया था। एक साहित्यिक प्रतियोगिता में उनका ऐसा ही एक लेख विधवा पुनर्विवाह की वकालत करते हुए छपा। इससे उनकी बुजुर्ग चाची, जिसने करसनदास की मृत्यु के बाद भतीजे की देखभाल की थी, इतना क्षुब्ध हुर्इं कि उन्हें तुरंत घर से निकाल बाहर कर दिया। उस बीच कपास के व्यापार के सिलसिले में उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की और समुद्र पार करने के अपराध में जाति से भी बहिष्कृत कर दिए गए।
करसनदास की पत्रकारीय पारी १८५१ में शुरू हुई, जब उन्होंने डॉ. दादाभाई नौरोजी के एंग्लो-गुजराती समाचार पत्र ‘रास्ट गोफ्तार’ में योगदान देना शुरू किया। साथ में वे ‘स्त्रीबोध’ पत्रिका के लिए भी लिखा करते। इन पत्रिकाओं के सीमित पाठक वर्ग से नाखुश होकर मंगलभाई नत्थुभाई और रुस्तमजी रानीना की मदद से उन्होंने १८५५ में ‘सत्यप्रकाश’ नामक गुजराती समाचार पत्र की स्थापना की। उनके संपादन में ‘सत्यप्रकाश’ केवल छह साल तक ही प्रकाशित हुआ और फिर ‘रास्ट गोफ्तार’ में ही विलीन हो गया। १८६७ में बम्बई प्रांत की सरकार ने उन्हें काठियावाड़ राज्य के प्रशासक की जिम्मेदारी सौंपी थी। मात्र ३९ वर्ष की आयु में २८ अगस्त, १८७५ को उनका निधन हो गया।
अभिनेता आमिर खान के बेटे जुनैद खान अभिनीत यशराज फिल्म्स की नेटफ्लिक्स पर रिलीज पहली फिल्म ‘महाराज’ इसी चर्चित मुकदमे से प्रेरित है, जिसकी रिलीज का वैष्णव संप्रदाय के कुछ अनुयायियों ने यह कहकर विरोध किया था कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत होंगी। गुजरात हाई कोर्ट ने जांच के बाद इसमें आपत्ति लायक कुछ भी नहीं पाया।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)