मुख्यपृष्ठस्तंभझांकी : चश्मे चिराग का इस्तीफा

झांकी : चश्मे चिराग का इस्तीफा

अजय भट्टाचार्य

गुजरात लॉबी के चश्मे चिराग शिक्षाविद मनोज सोनी का संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा चौंकाने वाला है। ऐसा माना जा रहा है कि यह प्रशिक्षु आईएएस पूजा खेडकर से जुड़े एक बड़े विवाद का परिणाम है, जिसने आयोग के साथ-साथ सोनी को भी सवालों के घेरे में ला दिया है। सोनी ने `सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों’ में भाग लेने का हवाला देते हुए अपने पद पर कार्यकाल समाप्त होने से पांच साल पहले ही इस्तीफा दे दिया। ५९ वर्षीय सोनी ने २८ जून, २०१७ को आयोग के सदस्य के रूप में कार्यभार संभाला था। उन्होंने १६ मई, २०२३ को यूपीएससी अध्यक्ष के रूप में शपथ ली थी और उनका कार्यकाल १५ मई, २०२९ को समाप्त होना था। उन्हें जानने वाले लोग अनुमान लगा रहे हैं कि सोनी को स्वामीनारायण संस्था, अनुपम मिशन का प्रमुख बनाया जा सकता है। सोनी विवादों में घिरे रहने के लिए नए नहीं हैं, बड़ौदा के एमएस विश्वविद्यालय में ‘स्वतंत्र भारत में सबसे कम उम्र के कुलपति’ होने से लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मुक्त विश्वविद्यालय (बीएओयू) में दो बार कुलपति बनने तक। विवाद और आरोपों का मूल पक्षपात और विश्वविद्यालय कार्यालयों के साथ-साथ कार्यकारी निकायों में प्रमुख पदों पर उनकी नियुक्ति का नतीजा शिक्षा का ‘भाजपा ब्रांड हिंदूकरण’ रहा। सोनी अपनी पुस्तक- ‘इन सर्च ऑफ ए थर्ड स्पेस’ के बाद लाइट में आए, जिसमें २००२ में गोधरा दंगों की कहानी हिंदुत्व के नजरिए से बताई गई थी और इसने उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अच्छी डायरी में ला खड़ा किया। सोनी की योग्यता और डिग्री एक व्याख्याता के रूप में भी सवालों के घेरे में थी, उन्हें ४० साल की उम्र में एमएसयू में कुलपति नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति स्पष्ट रूप से नियुक्ति मानदंडों का उल्लंघन करती है। उनकी राजनीतिक विचारधारा भाजपा के पितृ संगठन से जुड़ी हुई थी और तत्कालीन शिक्षा मंत्री आनंदी पटेल के माध्यम से मोदी से उनकी निकटता ने उनके लिए चमत्कार किया। स्वामीनारायण संप्रदाय के अनुयायी होने के नाते, योग्यता न होने के बावजूद उन्हें आगे बढ़ने में मदद करने के लिए संप्रदाय के धार्मिक नेताओं से भी समर्थन मिला। दिलचस्प बात यह है कि वे कभी भी व्याख्याता के पद से ऊपर नहीं उठे, मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि उन्हें एमएसयू में कुलपति नियुक्त किया गया था, बाद में बीएओयू में दो कार्यकाल और उसके बाद उन्होंने अपनी शैक्षणिक यात्रा जारी नहीं रखी। वे बीएओयू में कुलपति के रूप में दो कार्यकाल पूरा करने के बाद भी व्याख्याता बने रहे।

यूपी का असर राजस्थान तक
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता के अखाड़े में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच चल रहे खुल्लमखुल्ला शीतयुद्ध दिल्ली होते हुए राजस्थान तक पहुंचने की संभावना है, ऐसा देखने को मिल रहा है। केशव मौर्य का दिल्ली जाकर पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और अमित शाह से गुटरगूं के बाद प्रदेश अध्यक्ष की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात को लेकर जो बयार यूपी से बही थी, वह जयपुर और सुदूर दक्षिण पूर्व राजस्थान में झाालवाड़ तक भी पहुंची। ऐसे में वसुंधरा की सक्रियता सियासी गलियारों में ‘कुछ’ तो होने का इशारा कर रही है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अचानक फिर से सक्रिय हो गई हैं। उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र झालरापाटन में स्थानीय पार्षद के साथ सवार होकर पूरे क्षेत्र का भ्रमण किया और साफ-सफाई को लेकर स्थानीय अधिकारियों को निर्देश दिया। सूबे की राजनीति में हाशिए पर जा चुकी रानी साहिबा अचानक सक्रिय हुईं तो सियासी गलियारों में चर्चा उठी कि क्या फिर से सक्रिय राजनीति में वापसी करने वाली हैं? अगर ऐसा होता है तो राजस्थान में नेतृत्व के संकट से जूझ रही भाजपा को संजीवनी मिल सकती है। लोकसभा चुनाव में लगभग अदृश्य रहीं रानी साहिबा की निष्क्रियता से पार्टी को नुकसान हुआ और पूर्वी राजस्थान की अधिकांश सीटों पर उसे हार का मुंह देखना पड़ा। लगातार चुनावों में २५ सीटें जीतने वाली पार्टी इस चुनाव में १४ सीटों पर सिमट गई। सवाल उठे लेकिन दब गए। पर्ची वाले मुख्यमंत्री बनने के बाद एकदम नेपथ्य में चली गईं रानी ने अचानक राजनितिक अंगड़ाई ली है जिससे राजस्थान भाजपा के सभी धड़ों के कान खड़े हो गए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)

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