मुख्यपृष्ठसमाचारतड़का : मालिक नहीं सेवक बनें

तड़का : मालिक नहीं सेवक बनें

कविता श्रीवास्तव

न्यायिक प्रणाली हमेशा निष्पक्ष होती है और निष्पक्ष ही रहनी चाहिए, तभी सही न्याय का भरोसा बनता है। इस मामले में हमारे संविधान ने बहुत ही संतुलित व्यवस्था कर रखी है इसीलिए हमारी अदालतों पर पूरा देश भरोसा करता है। फिर भी हमने सुना कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी द्वारा आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन के उद्घाटन पर बोलते हुए न्यायपालिका को `राजनीतिक पूर्वाग्रह’ से मुक्त रखने की बात कही। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपस्थिति में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में कोई राजनीतिक पक्षपात न हो, इसका ध्यान रखा जाए। उनका कहना था कि न्यायपालिका बिल्कुल शुद्ध, ईमानदार व पवित्र होनी चाहिए और लोगों को इसे एक मंदिर की तरह सम्मान देना चाहिए। न्यायाधीशों को अपनी व्यक्तिगत विचारधाराओं को अपने निर्णयों को प्रभावित करने की अनुमति देने से बचना चाहिए। देश के नागरिक और एक राजनेता के रूप में जनहित की दृष्टि से उनका यह बयान उचित है। फिर भी ममता की टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब उनकी सरकार के न्यायपालिका के साथ संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। हाल के दिनों में उच्च न्यायालय के कुछ पैâसलों की उन्होंने भी आलोचना की है। हालांकि, उनके कथन पर देश के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अदालतों के पैâसले संवैधानिक नैतिकता पर आधारित होने चाहिए, न कि जज की नैतिकता के विचार पर। न्यायाधीशों को उन्होंने याद दिलाया कि वे संविधान के `सेवक’ हैं, न कि इसके `मालिक’, उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को जिन मूल्यों का पालन करना चाहिए वे वही मूल्य हैं, जो संविधान ने उनके लिए स्थापित किए हैं, चाहे उन्हें यह पसंद हो या नहीं। हमारा समाज मानव गरिमा, भाईचारा, समानता, स्वतंत्रता, सभी के लिए सम्मान, सभी के लिए सहिष्णुता और सभी के समावेश के तत्वों पर पर आधारित है। खैर ममता दीदी ने जिस राजनीतिक पूर्वाग्रह की ओर संकेत किया है, वह भी महत्वपूर्ण है। वैसे तो हम सब जानते हैं कि लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य संविधान ने तय कर रखे हैं। तीनों स्वतंत्र हैं। उनके काम में अन्य का दखल नहीं होता है, लेकिन उनकी मनमानी भी नहीं हो सकती है। उन पर दूसरे की सख्त पहरेदारी सी होती है, ऊपर से संवैधानिक व्यवस्था सबको नियंत्रित करती है। भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है। हमारा संविधान एक बाध्यकारी कानूनी दस्तावेज है। इसमें राजनीतिक मंशा साधने के इरादों पर रोक लगाने के प्रावधान भी हैं। न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति विधायिका के पास है। न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह `कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करे। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।

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