कविता श्रीवास्तव
महाराष्ट्र में फिर से मुख्यमंत्री बनने के एकनाथ शिंदे के मंसूबों पर भारतीय जनता पार्टी के हाई कमान ने फिलहाल पानी फेर दिया है। ढाई साल पहले शिवसेना से गद्दारी करके एकनाथ शिंदे ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया था। उस समय भाजपा महाराष्ट्र में सत्ता वापस पाने के लिए व्याकुल थी। भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाकर शिंदे उनके लाडले बन गए। इतने लाडले कि उस समय भी उनके मुकाबले अधिक विधायकों की संख्या रखने वाली भाजपा ने उन्हें अपना लाडला मुख्यमंत्री बना दिया। उसके बाद लाडली बहन, लाडला भाई, लाडले वरिष्ठ नागरिक आदि का राग अलापते हुए शिंदे शायद यह भूल गए कि उनके कंधों के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने स्वयं को स्थापित करके उनसे कहीं ज्यादा बड़ी ऊंची उड़ान भर ली है। कहते हैं न कि किसी खींची हुई एक लकीर को छोटा करने के लिए उस लकीर से छेड़खानी नहीं की जाती है, बल्कि उसके बगल में उससे बड़ी लकीर खींच दी जाती है। उस बड़ी लकीर के सामने पहले वाली लकीर छोटी सी लगने लगती है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनकर इतरा रहे शिंदे की हालत आज उस छोटे लकीर जैसी हो गई है। हाल ही में बीते विधानसभा चुनावों में सर्वाधिक सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी ने स्वयं को सबसे बड़ी पार्टी बना लिया है। इतनी बड़ी की आज उन्हें शिंदे के सहयोग की गरज भी नहीं है। परिणाम यह है कि अब शिंदे की आवाज थमी हुई है। वे सरेंडर की स्थिति में पहुंच गए हैं। अब वे एकदम नतमस्तक की स्थिति में हैं। उनकी निर्भरता दिल्ली के पैâसले पर आश्रित रह गई है। अब वे हक मांगने नहीं उसकी राह देखने की स्थिति में हैं। संभवत: इसी को कहते हैं न `मरता, क्या न करता!’ खैर, राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है। चुनाव परिणाम के बाद राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं। महाराष्ट्र में किसानों की जबरदस्त समस्याएं हैं। बेरोजगारी से युवा वर्ग परेशान है। महंगाई घर-घर में चिंता का कारण बनी हुई है। अडानी को धारावी व अन्य कई सरकारी जगहें देने की चर्चाएं हैं। महाराष्ट्र को लाभ देने वाली योजनाओं का गुजरात में स्थानांतरण किए जाने के आरोप हैं। इन सबके बावजूद आखिर महाराष्ट्र में कोई एक पार्टी कैसे सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है, यह निश्चित तौर पर महाराष्ट्र के राजनीतिक धुरंधरों के लिए आत्मचिंतन और शोध का विषय है।