मुख्यपृष्ठनए समाचारतड़का : कटघरे में जज!

तड़का : कटघरे में जज!

कविता श्रीवास्तव
अदालतों और जजों को हमने हमेशा ही सम्मान की दृष्टि से देखा है। हमने उन्हें हमेशा निष्पक्ष ही समझा है। हम उन्हें संविधान का संरक्षक मानते हैं। जजों के निजी विचार और उनके आचरण उनके कार्यों को प्रभावित नहीं करते, हम यही मानते हैं। जजों से उच्च मानकों की अपेक्षा की जाती है। लेकिन कुछ ताजा खबरें हमारी इस भावना को चोट पहुंचाती हैं। ये खबरें बहुत विचलित करने वाली हैं, जो कुछ जजों को कटघरे में खड़ा करती हैं और न्यायपालिका की छवि को धूमिल करती दिखती हैं। महाराष्ट्र के सातारा जिले में ५ लाख रुपए की रिश्वतखोरी के एक मामले में जिला व सत्र न्यायाधीश का नाम भी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की ओर से दायर एफआईआर में शामिल है। कथित तौर पर पुणे की एक महिला के पिता को पैसे के लेनदेन की घपलेबाजी के एक मामले में जमानत देने के बदले में यह रिश्वत मांगी गई थी। अब जज साहब जांच के घेरे में हैं। एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज की सार्वजनिक टिप्पणी के खिलाफ शिकायतें मिलने पर विस्तृत जानकारी मांगी है। आरोप है कि उन्होंने कथित तौर पर बहुसंख्यकों की सत्ता के पक्ष में बात की और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की। इन जज साहब की टिप्पणियां पहले भी विवादों में रही हैं। उनके कई आदेश भी सुर्खियों में रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मौकों पर आपत्तिजनक टिप्पणियों, महिलाओं के प्रति द्वेषपूर्ण विचारों और धार्मिक पूर्वाग्रहों की अभिव्यक्ति के लिए संबंधित जजों को फटकार भी लगाई है। फिर भी कुछ जजों के अपने निजी विचार कई बार सामाजिक चर्चा में आ जाते हैं और विवाद खड़ा हो जाता है। बीते दिनों गुजरात हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने नाबालिग के बलात्कार से गर्भ ठहरने के एक मामले में मनुस्मृति का हवाला देकर विवाद सा उत्पन्न कर दिया था। उस हवाले के मुताबिक, १७ वर्ष की आयु में बच्चे को जन्म देना सामान्य बात है। इसी तरह कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायाधीश ने बेंगलुरू के एक हिस्से को ‘पाकिस्तान’ कह कर विवाद खड़ा कर दिया। कलकत्ता हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने कानून की बात करने के बजाए किशारवयीन लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखने की हिदायत देकर तहलका मचा दिया था। वैसे अदालती कामकाज में कई बार न्यायाधीश कई सकारात्मक और न्याय को बलवान बनाने वाले आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं। अपराध को रोकने, सामाजिक समरसता बढ़ाने और कानून की हिफाजत करने के बारे में अच्छे विचार भी न्यायाधीशों से सुने गए हैं। किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए सामाजिक विघटन, द्वेष या नियम-कानून को नजरअंदाज करने वाले बयानों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। न्यायपालिका से जुड़े जिम्मेदार लोगों के आचरण का समाज पर प्रभाव पड़ता है। संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करने वालों में यदि न्यायाधीशों का नाम भी आता है तो प्रश्नचिन्ह लगते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ यह भी आवश्यक है कि निष्पक्षता के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए न्यायाधीशों का आचरण निंदा से परे हो।

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