कविता श्रीवास्तव
सोशल मीडिया के कुछ संदेश हमें काफी कुछ सीख देते हैं। ऐसा ही एक मैसेज था, जिसमें लिखा था ‘आप एक भी पेड़ मत लगाइए’। वे अपने आप बढ़ते हैं। बस आप उन्हें तोड़ें नहीं। आप किसी नदी को साफ न करें। वे तो बहती रहती हैं। सिर्फ अपने आप को साफ करिए। उनमें गंदगी मत डालिए। शांतिदूत मत बनिए। शांति तो हर जगह है। बस आप नफरत मत पैâलाइए। आपको जानवरों को बचाने की कोशिश करने की भी जरूरत नहीं है। बस उन्हें मारिए नहीं और जंगलों को मत जलाइए। आप कुछ भी ठीक करने का प्रयास मत करिए। सब कुछ ठीक है। बस आप जैसे हैं वैसे बने रहिए।
किसी प्रकृति मित्र की यह अपील वाकई विचारणीय है। लेकिन मनुष्य करे तो क्या करे। वह तो भौतिक दुनिया का जीवन जीता है। उसे लकड़ियां भी चाहिए, जल भी चाहिए। पशुओं से भी वह काफी कुछ हासिल कर लेता है। मनुष्य जंगलों में तो रह नहीं सकता। वह शहरों में रहता है। इसलिए वह अपने शहर में ही जंगल बसाता है। प्राणी संग्रहालय बना देता है। शहर बसाने के लिए पहाड़ तोड़ता है। जंगलों की कटाई कर देता है। बांध बनाकर नदी का पानी रोकता है। यह मानव की अपनी प्रकृति है। इसलिए प्रकृति की मूल संरचना में खलल उत्पन्न करनेवाले प्राणी तो मनुष्य ही हैं। जंगलों में पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की देखभाल कोई नहीं करता। कुदरत ने उनकी सिस्टम और संतुलन स्वयं बनाया है। केवल मनुष्य ही अपनी आवश्यकताओं और अपने शौक की पूर्ति के लिए नदी-पहाड़, जानवरों, नदियों सबका अपनी सुविधाअनुसार उपयोग करने लगता है। इसी से प्रकृति का प्राकृतिक संतुलन बाधित होता है। यह हर मनुष्य जानता और समझता भी है। इससे बचने पर विचार भी करता है। पर वह एक संतुलन बनाने का प्रयास करता है। क्योंकि मनुष्य जंगलों में जीवन नहीं गुजार सकता है। वह जानवरों के बीच भी नहीं रह सकता। मानवीय सभ्यता की अपनी प्रकृति है। अत: जो चिंता किसी प्रकृति मित्र की है वही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक संगठनों की सक्रियता में भी है। मनुष्य को नदी-पहाड़, पेड़-पौधे, पशु, वन, हरियाली सभी प्राकृतिक सौंदर्य खूब लुभाते हैं। इसलिए वह इनके बने रहने की इच्छा रखता है। ऐसे प्यारे संदेश उस इच्छा को बल प्रदान करते हैं। वैसे हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु आने के साथ ही पेड़ों पर हरियाली की छटा बिखरने लगती है। इसी दौर में शहरों में मनपा की गाड़ियां पेड़ों की छंटाई करने निकल पड़ती हैं। दुर्घटनाओं से बचाव के लिए उनकी छंटाई आवश्यक होती है। वैसे भी मुंबई में पेड़ों की काटी गई अधिकांश लकड़ियां श्मशान में जाती हैं। क्योंकि मुंबई के श्मशानों में दाह संस्कार के लिए एक निश्चित मात्रा में मनपा अपनी ओर से लकड़ियां मुफ्त देती है। यह मानवीय संवेदनापूर्ण व्यवस्था मुंबई में ही है। इस तरह प्रकृति और मानवीय आवश्यकता दोनों के बीच संतुलन से ही संसार की गाड़ी चल रही है।