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तड़का: माया का खेल

कविता श्रीवास्तव
घर-बार, मोहमाया और परिवार का त्याग कर चुके साधु-संतों से चर्चा करेंगे तो वे विरक्ति की राह दिखाएंगे। भक्ति मार्ग पर ले जाएंगे। दुनियादारी को माया का खेल बताएंगे। लेकिन हम उस माया की नहीं, राजनीति की माया यानी बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती बहनजी की बात कर रहे हैं। वे राजनीति में हैं जहां विरक्ति और त्याग का कोई स्थान नहीं होता। वहां होती है लालसा और निगाह होती है सत्ता पर। जी हां, जनता के काम के लिए पावर तो जरूरी है। लेकिन लोकतंत्र में सत्ता के लिए वोट की जरूरत होती है। इसके लिए खूब तालमेल और जोड़तोड़ करना पड़ता है। बीते मंगलवार को सत्ताधारी एनडीए और विपक्षी दलों के गठजोड़ आईएनडीआईए (इंडिया) की अलग-अलग बैठकें हुर्इं। मायावती इन दोनों में से किसी में शामिल नहीं हुर्इं। दो दिन बाद उन्होंने प्रेस कांप्रâेंस बुलाई और अपनी तटस्थता स्पष्ट की। उन्होंने साफ कर दिया कि फिलहाल वे किसी गठबंधन में नहीं जाएंगी। उनकी पार्टी चुनावी जंग में अकेले ही उतरेगी। ध्यान रहे कि पिछले लोकसभा चुनाव में वे समाजवादी पार्टी के साथ थीं। उससे भी पहले वे भाजपा और सपा के साथ अलग-अलग गठबंधन करके तीन बार यूपी की मुख्यमंत्री रही हैं। लेकिन अब वे न तो इंडिया और न ही एनडीए के साथ जाना चाहती हैं। साथ की बात छोड़िए, लगता है वे किसी से पंगा लेने के मूड में भी नहीं हैं। ध्यान रहे कि कभी ताज कॉरिडोर की जांच में उनका नाम आया था। हो सकता है इसीलिए अब वे संभल कर चल रही हों। लेकिन उन्होंने अपना रास्ता साफ रखा है। गठबंधन में वैसे भी हर दल को सीमित सीटें ही मिलती हैं। पार्टी में सबको टिकट देना संभव नहीं हो पाता है। तब कुछ नेता भागने भी लगते हैं। मायावतीजी तो पार्टी के चुनावी टिकट वितरण के लिए भी मशहूर हैं। गठबंधन हुआ तो वे खुलकर हर निर्वाचन क्षेत्र में टिकट वितरण नहीं कर पाएंगी। दूसरे उनका विचार यह भी हो सकता है कि अकेले चुनाव लड़कर जो भी सीटें मिलें, उसी के दम पर सत्ताधारियों से लाभ उठाया जाए। फिर चाहे एनडीए की सरकार बने या आईएनडीआईए (इंडिया) की। इस तरह सीमित दायरे में भी वे अपनी राजनीतिक ताकत को बचाए रखना चाहेंगी। ईडी वगैरह की चक्करबाजी से वैसे भी आजकल बहुत से लोग घबराने लगे हैं। कुल मिलाकर कुछ लोगों के लिए राजनीति कुछ ऐसी भी हो गई है कि आगे कुआं और पीछे खाई। इससे अच्छा है अपनी राह चलो और ज्यादा की उम्मीद मत पालो। लेकिन लोकतंत्र में केवल सत्ता पाना ही सबका लक्ष्य नहीं होता। नैतिकता, सिद्धांत और राजनीतिक मूल्यों की बुनियाद बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है। सत्ता तो ऐसी मादकता है जो मिले तो भी संघर्ष है, न मिले तब तो है ही। लोकतंत्र है तो राजनीति और राजनेता भी जरूरी हैं। जनहित के लिए नेतृत्व और संघर्ष के साथ सत्ता भी जरूरी है। उसकी मादकता ही राजनीति और लोकतंत्र का शृंगार है। लेकिन कुछ लोग सत्ता न पाने पर उसकी कड़वाहट में बहुत बौराए रहते हैं और मिल जाने पर उसकी चमक-दमक से और भी बौरा जाते हैं। तभी तो बिहारीलाल ने लिखा है…
कनक कनक ते सौ गुनी,
मादकता अधिकाय।
या खाए बौराए नर,
वा पाए बौराए।।

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