मुख्यपृष्ठस्तंभतड़का : मुद्दे कहां हैं?

तड़का : मुद्दे कहां हैं?

कविता श्रीवास्तव
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रचार की सरगर्मी ने तेजी पकड़ी है। लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) पक्षप्रमुख उद्धव ठाकरे, शरद पवार और अनेक नेताओं ने प्रचार अभियान में तेजी लाई है। इसी बीच शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी महाराष्ट्र पहुंचे। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में वोट पाने के लिए अपने कार्यों की बजाय विपक्षियों को कोसने पर ज्यादा जोर लगाया। महाराष्ट्र में बेरोजगारी, युवाओं की समस्या, किसानों की समस्या, महाराष्ट्र से उद्योग-धंधों के गुजरात शिफ्ट होने की समस्या, आरक्षण के मुद्दे आदि पर कुछ ना बोलते हुए उन्होंने ‘एक हैं तो सेफ हैं’, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे विषयों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस पर सही प्रतिक्रिया दी कि देश को एकजुट रखने की बजाय ये भेदभाव बढ़ाने वाले नारे हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने देश को एकजुट रखने के लिए खूब बलिदान दिया, लेकिन आज कुछ लोगों ने एकता के प्रयासों पर पानी फेर दिया है। कुछ नेता यह भी पूछ रहे हैं कि क्या आजादी के इतने वर्षों तक हम सेफ नहीं थे। हम देख रहे हैं कि संविधान बचाने के लिए राहुल गांधी के कुछ प्रयास हैं। उनका मखौल उड़ाने से भी भाजपाई बच नहीं रहे हैं। इधर राज्य के चुनाव के दौरान एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में कुछ नेताओं ने भाषा की मर्यादा को भी ताक पर रख दिया है। अपने भाषण को या अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए वह जिस तरह भाषा की मर्यादा तोड़ते हैं वह नई पीढ़ी और संस्कारी लोगों को शायद ही रास आती होगी। यह बात अक्सर हम चुनाव में देखते ही हैं। चुनाव आम जनता के हितों के लिए, विकास के कार्यों के लिए और लोगों को राहत पहुंचाने के लिए मुद्दों और विषयों पर लड़े जाते हैं। राजनीतिक दलों की अपनी नीतियां और उनके कार्यक्रम जनता के समक्ष रखे जाते हैं। लेकिन हाल के चुनावों में हम देखते हैं कि लोग अपने भाषणों और बयानों में व्यक्तिगत टिप्पणियों तक पहुंच जाते हैं और चरित्र हनन करने के प्रयास भी होते दिखते हैं। ऐसी खबरें देखकर नई पीढ़ी के लोग और संस्कारी लोगों को राजनीति से चिढ़ होने लगती है। संभवत: इसीलिए वे मतदान करने नहीं जाते हैं। अक्सर हमने देखा है कि ढेर सारे लोग मतदान ही नहीं करते हैं। इसके पीछे अन्य कारण ढूंढने के साथ ही राजनीति के गिरते हुए स्तर को समझना भी जरूरी है। महाराष्ट्र के चुनाव में यहां की मिट्टी, यहां की संत परंपरा, छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता और मराठी माणुस का स्वाभिमान सर्वोपरि है, लेकिन इस चुनाव में हम देख रहे हैं कि यह सब भूलकर कुछ बड़ी पार्टियों को खुश करने के चक्कर में कुछ लोग निरंतर चापलूसी के स्तर पर जा पहुंचे हैं। इसके पीछे स्वार्थ तो है ही। लगता है कि कहीं उन पर सचमुच में ईडी की तलवार तो नहीं लटकी हुई है। शायद इसलिए कुछ नेता सहमें-सहमें भी नजर आते हैं।

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