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बात-जज्बात : नाम से बड़ा है काम…

एम एम सिंह

भाजपा के पास मुद्दों की कमी नहीं है। हालांकि, उसके मुद्दे आम जनता और राष्ट्र के हित में कितने कारगर होते हैं उस पर बहस फिजूल है। ऐतिहासिक इमारतों, शहरों, जिलों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, मार्गों आदि का नाम बदलने का सिलसिला जारी है, क्योंकि भाजपा को लगता है इससे देश और देश की संस्कृति का ‘उद्धार’ होगा! खबरों पर नजर डालें तो आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से से खबर आती है कि अमुक शहर का या अमुक स्टेशन का नाम बदल दिया गया या अमुक मार्ग का नया नाम रख दिया गया। इन सबमें एक बात कॉमन होती है और वह यह कि पुराना नाम किसी मुस्लिम का होता है या उर्दू ओरिजिन का होता है। अभी ताजा मामला असम और राजस्थान सरकार का है। असम में हिमंत बिस्वा सरमा ने एक जिले का नाम बदल दिया है तो राजस्थान में सरकार ने अजमेर के एक होटल का नाम बदला है। अजमेर में राज्य पर्यटन निगम के होटल ‘खादिम’ का नाम बदल कर ‘अजयमेरू’ कर दिया गया है। कहा जा रहा है कि राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष और अजमेर उत्तर के विधायक वासुदेव देवनानी के आदेश पर ऐसा किया गया है। तर्क है कि पृथ्वीराज चौहान के समय और उससे पहले अजमेर का नाम अजयमेरू ही था। बहरहाल, अजमेर में किंग एडवर्ड मेमोरियल का नाम भी बदलकर स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम पर करने का निर्देश दिया गया है। असम में राज्य सरकार ने करीमगंज जिले का नाम बदलकर श्रीभूमि कर दिया है। खैर, यह सिलसिला तो चलता ही रहेगा, लेकिन कितना अच्छा होता यदि इन राज्यों की सरकारें जनता की बुनियादी सुविधाओं पर भी अपना ध्यान लगातीं। असम की बात करें तो वहां की समस्याओं में मुख्य है बाढ़, गरीबी और बेरोजगारी। असम में बाढ़ की समस्या अन्य राज्यों से अलग है और देश में सबसे तीव्र और अनोखी है। बाढ़ से कई लोग प्रभावित होते हैं और अपना घरबार छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। असम में गरीबी का स्तर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। १९९४ और २००५ के बीच असम में गरीबी का स्तर तेजी से कम हुआ था, लेकिन उसके बाद से राज्य गरीबी कम करने में पीछे रह गया है। असम में १५ लाख से ज्यादा शिक्षित युवा बेरोजगार हैं। राजस्थान की बात करें तो राज्य में जल संकट, बेरोजगारी, किसानों की समस्या जैसी कुछ मुख्य समस्याएं हैं।
क्या राजस्थान के मुख्यमंत्री भंवर लाल शर्मा और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अपने राज्य के नागरिकों की इन परेशानियों से वाकिफ नहीं हैं? बिल्कुल होंगे, लेकिन उससे संस्कृति का ‘उद्धार’ थोड़ी ना होगा!

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