सैयद सलमान
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले से एक बहुत ही सुकूनभरी खबर आई जो राजनीतिक उठापटक की खबरों में दबकर रह गई। सुकून इस बात का कि अब भी इस देश में ऐसी पवित्र विचारधारा के लोग बसते हैं, जिन्हें प्रांत, भाषा, जाति या धर्म के नाम पर खड़ी की गई दीवारें बांट नहीं सकी हैं। बात भाषा प्रेम से जुड़ी है। चंदौली के एक खेतिहर मजदूर सलाहऊद्दीन के १७ वर्षीय बेटे मोहम्मद इरफान ने उत्तर प्रदेश माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद बोर्ड की उत्तर मध्यमा-द्वितीय, कक्षा १२ की परीक्षा में ८२.७१ प्रतिशत अंक हासिल कर टॉप कर लिया है। इरफान कक्षा १० और १२ की परीक्षाओं में टॉप-२० में आने वाले छात्रों में एकमात्र मुस्लिम हैं। अब उनका सपना संस्कृत शिक्षक बनने का है। इरफान की इस कामयाबी पर उनके पिता ही नहीं, बल्कि पूरा परिवार और उनके नजदीकी काफी खुश हैं। यह एक तरह का करिश्मा ही है, जिसके नायक इरफान का चंदौली के संपूर्णानंद संस्कृत सरकारी स्कूल में दाखिला महज इस बुनियाद पर करवाया गया था, क्योंकि उनके गरीब मजदूर पिता सिर्फ उसी स्कूल की फीस भर सकते थे। वे इरफान को स्थानीय निजी या किसी अन्य नामचीन स्कूल में भेजने का खर्च नहीं उठा सकते थे, क्योंकि वह खेतिहर मजदूर हैं और खुदा न ख्वास्ता काम न मिलने या पैसे न होने पर फीस के पैसों का इंतजाम करने में दिक्कत आ सकती थी। लेकिन मजदूर बाप हर हाल में अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता था। यह जिद शायद उसे कुरआन की शिक्षा के महत्व को समझाने वाली आयत `इकरा’ यानी `पढ़ो’ से मिली होगी। इस आयत में कहीं नहीं लिखा है कि किस भाषा में पढ़ना है, बस शिक्षित होना ही महत्वपूर्ण है। मजदूर पिता के बेटे इरफान ने उस दिशा में प्रयास जारी रखते हुए हिंदू धर्म के लिए रिजर्व माने जाने वाली संस्कृत भाषा को न सिर्फ पढ़ा, बल्कि बोर्ड की परीक्षा में टॉप करके बता दिया कि भाषा दिलों को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है। संस्कृत और उर्दू को आमने-सामने करने वालों के लिए यह एक बड़ी सीख है।
इसी तरह उर्दू भी केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है। यह सल्तनत काल में हिंदुस्थान में जन्मी और तत्पश्चात विकसित हुई भाषा है। दरअसल, भाषा का कोई धर्म या मजहब नहीं होता और न ही वह किन्हीं क्षेत्रीय सीमाओं से बंधी होती है। असल में उर्दू को मुसलमानों की भाषा का लेबल तो आजादी के समय से ही लगा दिया गया था। वह आज तक इससे निकल नहीं पाई। यहां एक बात समझना जरूरी है कि भाषा अपने भावों, अपने विचारों और अपनी सोच को दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम है। यह माध्यम कोई मानव निर्मित माध्यम नहीं है, यह कुदरती है। कहते हैं प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में एक वाव््â केंद्र होता है, जिसके प्रयोग से वह अपनी बात दूसरों के सामने रखता है। गूंगे व्यक्ति भी इसी प्रकार इशारों से अपनी बात कहते हैं। उनकी बोली नहीं होती लेकिन इशारे ही उनकी भाषा होते हैं। यानी दूसरों के सामने अपनी बात कहने और प्रस्तुत करने की क्षमता प्राकृतिक है। अर्थात जो दिव्य है, कुदरती है वह सबके लिए है। जैसे हवा, पानी और प्रकाश सबके लिए एक समान है। बस भाषा भी वही है।
विभिन्न भाषाओं के विकास से सरोकार रखने वाले लेखकों और शिक्षाविदों का मानना है कि संस्कृत और उर्दू भाषा को हिंदू-मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रस्तुत कर एक सीमित दायरे में बांधे रखने का प्रयास किया गया। इससे दोनों भाषाओं को नुकसान हुआ। धर्म की कोई भाषा नहीं होती, बल्कि अपनी बात को अपने अनुयायियों तक पहुंचाने के लिए धर्म को भाषाओं की जरूरत होती है। जैसे संस्कृत में वेद पुराण और अरबी में कुरआन। जैसे इरफान ने संस्कृत को चुना, उसी तरह उर्दू सहित देश की सभी भाषाओं को अधिकाधिक बच्चों को पढ़ाने का इंतजाम हो तो भाषा के नाम पर पैदा हुई दूरियां खत्म की जा सकती हैं। दुनिया वर्तमान में एक ऐसी त्रासदी से गुजर रही है, जिसमें कई भाषाओं की गुमनाम मौत शामिल है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया में हर साढ़े तीन महीने में कोई न कोई भाषा दम तोड़ रही है। भाषा के खत्म होने के साथ ही सदियों से फल-फूल रही संपूर्ण संस्कृति और उसका ज्ञान भी लुप्त हो रहा है। इसकी भरपाई असंभव है। कहना गलत नहीं होगा कि धर्म और जात-पांत से ऊपर उठकर योग्यता ही असल वरीयता की हकदार है। दिलों को जोड़ने वाली सभी भाषाओं का संरक्षण जरूरी है। संस्कृत और उर्दू का भी उनमें समावेश है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)