मुख्यपृष्ठस्तंभइस्लाम की बात : ‘दीन के मामले में कोई जबरदस्ती नही’ ...तरावीह पर...

इस्लाम की बात : ‘दीन के मामले में कोई जबरदस्ती नही’ …तरावीह पर मतभेद क्यों?

सैयद सलमान
मुंबई

माह-ए-रमजान जारी है। बरकतों के इस महीने में खूब इबादतें हो रही हैं, लेकिन माह-ए-रमजान की विशेष ‘तरावीह नमाज’ की संख्या को लेकर मुस्लिम समुदाय के विद्वानों और विभिन्न फिरकों के बीच मतभेद के कई मामले सामने आते रहते हैं। मुसलमान इस बात को समझ ही नहीं पा रहे कि तरावीह को लेकर जारी यह विवाद उनके मजाक का कारण बनता है। मीनारों और मेहराबों से लेकर बाजारों तक, हर जगह तरावीह की नमाज की रकअतों पर यह बहस चिंताजनक है। अपने-अपने विचारधारा के लोगों के बीच, खासकर सोशल मीडिया पर इस विवाद को और गहरे तक पहुंचाने की कोशिश होती है। प्रत्येक मुस्लिम उलेमा अपने-अपने तर्क रखते हुए एक-दूसरे के तर्कों को खारिज करते हैं और अपनी विचारधारा का समर्थन करते हैं, मानो इस्लाम पर केवल उनका एकाधिकार है। जब किसी समाज की बुद्धि और चेतना कमजोर हो जाती है तो वह तुरंत होश में नहीं आता। वह तब तक होश में नहीं आता, जब तक पागलपन और मूर्खता के कार्यों को त्यागकर समझदारी से काम नहीं लेता। मुस्लिम समाज का मामला कुछ ऐसा ही है।
तरावीह में रकअत की संख्या का मतभेद इतना गंभीर हो गया है कि हर फिरके के लोग दूसरे के फिरके को कमतर घोषित कर देते हैं। यह मतभेद तब और भी गंभीर हो जाता है, जब दो विपरीत विचारधारा के लोग एक-दूसरे को गुमराह, नास्तिक, विधर्मी, जहन्नमी और न जाने क्या-क्या कहने लगते हैं। कुछ मामले तो हिंसक हो जाते हैं। ऐसे मौकों पर अक्सर गैर मुस्लिम पुलिस अधिकारी इस बात को लेकर काफी चिंतित हो जाते हैं कि आखिर समस्या का समाधान वैâसे निकाला जाए। वह तो यही समझते हैं कि मुसलमान एक, अल्लाह एक, रसूल एक, कुरआन एक तो फिर यह तरावीह की आठ, दस और बीस रकअतों का क्या मसला है? कुछ तो तरावीह को ही सिरे से नकार देते हैं। तरावीह नमाज की ८ और २० रकअत को लेकर मतभेद बहुत पुराना है। आठ रकअतों वाली एक हदीस है जो बुखारी शरीफ में है, जिसे हजरत आयशा ने सुनाया है और जिसका अहले हदीस मसलक के लोग अधिक सम्मान करते हैं। अहल-ए-हदीस का दावा है कि यह हदीस तरावीह और तहज्जुद से संबंधित है। सलफी मसलक के अनेक विद्वान और इमाम आठ रकअत पर विश्वास करते हैं। इसी प्रकार, मलिकी परंपरा में आठ रकअत की तरावीह पाई जाती है, जबकि कुछ विद्वानों ने इमाम मलिक के साथ इसके संबंध से इनकार किया है। हनफ़ी मसलक में तरावीह की बीस रकअत पर आम सहमति है। इसमें देवबंदी, बरेलवी और तबलीगी जमात के लोग शामिल हैं।
आखिर इबादत के नाम पर यह विवाद क्यों? जबकि उचित तो यह है कि उम्मत के सामूहिक हित को ध्यान में रखते हुए दूसरों के प्रति सहिष्णुता दिखाई जाए और हर उस मामले में सावधानी और संयम से काम लिया जाए, जहां दोनों पक्षों के बीच विवाद हो। आश्चर्य की बात यह है कि हर मुसलमान यह अच्छी तरह से जानता है कि तरावीह एक सुन्नत है, फर्ज या वाजिब नहीं। इसे लेकर उम्मत की एकता की बलि नहीं दी जा सकती। मुसलमान जानते हैं कि यह मतभेद आज का नहीं है, सैकड़ों वर्षों का है। मुसलमानों के अग्रदूतों, इमामों और मुजतहिदों के युग के दौरान भी यह वैसा ही रहा, जैसा कि आज है। यह निश्चित है कि जब आठ रकअत के ईमान वाले बीस को गुमराह और आठ को बीस वाले गुमराह घोषित करेंगे और दूसरों के तर्कों को निराधार कहेंगे तो बात बिगड़ेगी ही। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि अब यह एक ऐसा मतभेद हो गया है, जिसे समय रहते हिकमत से सुलझाना है। इस खाई को और अधिक बढ़ाने के बजाय प्यार और समझ के माध्यम से पाटना बेहतर है, क्योंकि यह मतभेद दो धर्मों का नहीं, एक ही धर्म के कई फिरकों का है। मुस्लिम उलेमा और उपदेशकों को यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि उम्मत में मतभेद दोनों पक्षों के तर्कों के बावजूद बने हुए हैं। आज के दौर में किसी आलिम, उपदेशक, मुहद्दिस, मुफ्ती या त़फ्सीर लिखने वालों की यह स्थिति नहीं हो सकती कि अगर वह कोई माकूल बात कहें या फतवा जारी करें तो दूसरा तबका उनकी बातें आंख मूंद कर मान लेगा। फिर यह जिद और हठ क्यों? महत्वपूर्ण यह है कि तरावीह की नमाज का कुरआन में उल्लेख नहीं है, लेकिन इससे यह कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाती। आखिर कई नमाजों का जिक्र कुरआन में नहीं है, लेकिन सुन्नत और नफिल के रूप में वह नमाजें अदा की जाती हैं। इसी तरह तरावीह नमाज को लेकर मतभेद के बजाय अपनी-अपनी मान्यता अनुसार अदा करना चाहिए। कुरआन खुद कहता है, ‘ला इकराहा फिद्दीन’ अर्थात दीन के मामले में कोई जबरदस्ती नहीं।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

अन्य समाचार