तर्पण

‘‘अम्मा जी! कब तक अपनी गठरिया-मुठरिया बांधती रहोगी, अब उठो भी।’’ बहू की गूंजती आवाज से चौंककर सुखदेई ने अपना झुका सर उठाया। ‘‘आ रही हूं बहू। अब यहां लौटना तो है नहीं, अपनी जोड़ी गृहस्थी थोड़े फेंक जाऊंगी।’’ ‘‘जैसा मन हो आपका, अभी मुझे रोटी भी थोपनी है, चैन नहीं है जरा-सा।’’ बहू बड़बड़ाती चौके में जाने लगी।
सुखदेई ने एक उसांस ली। हां, यही सुनने को बाकी है इनकी बड़बड़ाहट। बेटे के मरने पर पोते को पढ़ा-लिखा कर ब्याहा कि बहू आकर सेवा करेगी, लेकिन इसका मुंह ही सीधा नहीं रहता। इस बुढ़ापे से झुकी कमर में भी बिचारी बैठकर कमरे में झाडू लगा देती है। अब तो हाथ कांपता है। पहले तो बैठे-बैठे बर्तन भी मल दिया करती थी। बहू की लगाई-बुझाई के मारे अब तो रमन भी सीधे मुंह नहीं बोलता, नहीं तो पहले दादी-दादी कर हमेशा आगे-पीछे डोलता था। क्या करे? मांगे मौत तो आती नहीं। जीवन चक्र अगर निश्चित हो तो मृत्यु भी ठीक समय पर हो जाए। ‘हर इन्सान अपने कर्तव्य पूरे करके मर जाए, लेकिन ऐसा कहां होता है। उस का भोग भोगना ही पड़ता है। भोग ही तो रही है सुखदेई, वरना पति की मृत्यु पर ही प्राण निकल जाते। वो भी झेलने के बाद प्राण प्यारे बेटे की मौत को भी झेला, उन्होंने इसी रमन का मुंह देखकर, बेटियां तो उन्हें अपने घर ले जाना चाहती थीं। लेकिन ये नहीं गई कि मेरे रमन को अपनी देहरी तो नसीब रहे। रमन की मां-बाप तो वही थी। खेती बटाई पर उठाकर उन्होने कितनी मुश्किलों से रमन को पाला वे ही जानती हैं।
शहर में होस्टल में रखकर उच्च शिक्षा का खर्चा उठाना उनके बूते के बाहर था, फिर भी जमीन के एक टुकड़े को बेचकर उन्होंने इसकी भी व्यवस्था की। रमन की नौकरी लगने पर सारे गांव को लड्डू बांट आई थीं। सारे गांव में गाती फिरी थीं कि अब उनके दलिद्दर दूर हो गये। रमन तो उन्हें राजरानी बनाकर रखेगा। रमन की शादी में भी थोड़ी जमीन उन्हें बेचनी पड़ी, लेकिन पोते के घर बसाने की खुशी में अपनी जमीन उजड़ने का गम भूली रहीं। रमन नौकरी पर शहर में बहू के साथ रहा तो भी उन्हें कोई रंज नहीं था। जब तक हाथ-पैर चले वो गांव में बनी रही, लेकिन इधर एक साल से उनके हाथ-पैर बिल्कुल नहीं चलते थे। गांव वालों से उनकी दुर्दशा देखी नहीं गई और वे रमन के पास आकर उन्हें छोड़ गए। बहू की भौहों में पड़ी गांठों से ही उन्हें महसूस हो गया था कि उसका आना उन्हें अच्छा नहीं लगा, लेकिन क्या करती? कहां जाती? वहीं रहने लगीं।
रमन किराए पर दो कमरे लेकर रहता था। कमरे के पीछे एक बराण्डा था। उसी में आड़ बनाकर उन्हें जगह दे दी गई। सामान के नाम पर था छोटा सा बक्सा, थैला और उनके ठाकुर जी। रमन के दोनों बच्चों सुमीत और गीता को ग्रैंड दादी बहुत ‘फनी’ लगीं।
‘‘दादी-दादी, आपके बाल इतने व्हाइट क्यों हैं? क्या आप स्नोव्हाइट से मिलने जाती थीं।’’ नीता भोलेपन से पूछती तो सुखदेई पूछती, ‘‘व्हाइट क्या?’’
‘‘अरे दादी, सफेद-सफेद’’ सुमीत तुरंत गांव से आई दादी को समझाने लगता। बच्चों का अपने पास आना सुखदेई को बहुत भला लगता, लेकिन रमन की बहू को ये सब पसंद नहीं आता। वह बच्चों को दादी के पास देखती तो तुरंत हल्ला करने लगती। ‘‘सुमीत नीता अपने स्टडीरूम में जाओ। हर वक्त देहाती बातें सीखते रहेंगे।
बच्चे सिटपिटाकर अपने रूम में जा घुसते और वो बहू का चेहरा देखती रह जाती। कभी-कभी जब बहू शाम के समय किटी पार्टी में चली जाती तो बच्चे दौड़कर उनके पास आ जाते।
‘‘दादी-दादी, हमें कहानी सुनाओ।’’ फिर न जाने कितने अगिया बैताल, ठनठनिया चुड़ैल और अंगूठे प्रसाद की कहानियां सुना-सुना कर उनका मन नहीं भरता। मां के आने की आवाज आते ही दोनों कमरे में घुस जाते। रमन सुबह ऑफिस से निकलता था। देर से सोकर उठता, फिर शेव करता, नहाता-धोता और नाश्ता करके लंच पैक कराकर निकल जाता। शाम को सात बजे तक लौटता तो कभी बहू को घुमाने ले जाता, कभी उसके दोस्त आ जाते। इतवार की सुबह वह एक बार जरूर उनके कमरे में आता। ‘‘दादी कुछ जरूरत तो नहीं है ? ठीक से हो?’’
सुखदेई इतने में ही कृतार्थ हो उठतीं। ममता से उनका मन भर उठता। इस नन्हे से जवान हुए रमन को देखते, उसके बारे में फिक्र करते ही तो उनकी जिंदगी गुजर रही थी। बहू का स्वभाव यन्त्रवत था। समय पर उनके सामने नाश्ता पटक जाती। खाने के समय खाना। शाम को चाय, रात को खाना। नहा-धो वो खुद लेती थी। जितना बहू रख जाती चुपचाप खा लेती थी। मांगते हुए या कोई फरमाइश करते उन्हें डर लगता था। पता नहीं क्या जवाब दे दे। बच्चे जब स्कूल से आते तो दादी के लिए जरूर कुछ न कुछ लाते। और मां से छुपाकर उन्हें दे भी आते थे। उनका हृदय पुलक से भर जाता। सोचती इसी लाड़-दुलार के लिए तो लोग पोते-पोती की तमन्ना रखते हैं। दोपहर के खाने के बाद सुखदेई थोड़ी देर सो जाती थी। पास-पड़ोस तो कहीं जाती नहीं थीं। उसी बराण्डे से थोड़ा बाहर झांक कर सड़क पर चलते लोगों को देखती रहतीं। कोई घर में मेहमान आता भी तो उन्हें सबके सामने आने से बहू मना करती थी। उनके बराण्डे से ही कमरे में होती बातें वे सुना करती थीं।
उस दिन काफी शोर मचा हुआ था। रमन तेज-तेज आवाज में कुछ बोल रहा था। थोड़ी देर बात सुमीत और नीता उनके पास आये। हाथ में एक प्लेट में मिठाई के दो टुकड़े थे।
‘‘दादी मिठाई खाओ।’’
‘‘ किसलिए बेटा ?’’
पापा का प्रमोशन हो गया है। अब हम लोग दिल्ली चले जाएंगे न इसलिए। अब पापा बहुत बड़े आफिसर हो गये हैं।’’
‘‘अच्छा-अच्छा’’ सुखदेई प्रसन्न हो उठी। उन्होंने कल्पना में ही रमन को बलाएं लीं। रात का खाना जब बहू देने आई तो उन्होंने बात करने की चेष्टा की।
‘‘बहू रमन कहां है ?’’
‘‘अपने कमरे में’’ निर्विकार रूप से जवाब देकर बहू बाहर चली गई। रात होने तक सुखदेई के कान बाहर लगे रहे, शायद रमन उनके पास आए, लेकिन वह नहीं आया। घर में अब सामान पैक होना शुरू हो गया था।
बच्चों से ही उन्हें पता चला कि दस दिन बाद ट्रेन से सब लोग जाएंगे। सामान दो दिन पहले ट्रक से चला जाएगा। इधर सुखदेई को बुखार आने लगा था और खांसी भी रहती थी। बहू खाना रख जाती तो उनका खाने का मन नहीं होता, किसी तरह एक-दो कौर ठूंस लेती। बुखार बढ़ता ही गया, इधर दो तीन रोज से बच्चे उनके पास नहीं आए थे, क्योंकि नये घर जाने की खुशी में अपना-अपना मनपसंद सामान पैक कर रहे थे।
रात में सुखदेई को बहुत पेशाब लगी, लेकिन बिस्तर से उठ न सकीं और बिस्तर खराब हो गया। सबेरे जब बहू चाय देने आई तो गंधाते गद्दे और बेहोश पड़ी सुखदेई को देखकर उसका पारा आसमान में चढ़ गया। तुरंत रमन की पुकार हुई, फिर रमन ने ही किसी तरह उनके कपड़े बदले और सूखे बिस्तर पर डाला। डॉक्टर आया, दवा दी गई। दूसरे दिन कुछ स्वस्थ हुईं सुखदेई बाथरूम की तरफ जा रही थीं तो रमन के कमरे से अपना नाम सुनकर रुक गईं।
रमन की बहू कह रही थी- ‘‘वहां दिल्ली में कहां ले जाओगे इस गंदगी की गठरी को। तुम्हीं करोगे सब कुछ, मैं तो कुछ करने वाली नहीं।
‘‘कहां फेंक दूं यार, आखिर मेरी दादी हैं। मुझे पाला-पोसा है।’’ रमन की आवाज धीमी थी।
उनका मन भर आया। आखिर पोता है उनका। ‘‘पता नहीं मर क्यों नहीं जाती। गांव की जमीन बेचकर हम दिल्ली में अपना छोटा सा फ्लैट खरीद सकते हैं।’’
रमन का जवाब सुनने की शक्ति नहीं रही उनके अन्दर। चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट रहीं। सच बुढ़ापे में मनुष्य अपने परिवार पर भार हो जाता है, उसी परिवार को, जिसका भार सारे जीवन वो अपने कंधों पर ढोता रहता है।
सामान पैक होकर ट्रक में चला गया, लेकिन उनका सामान उसमें नहीं था। बहू ने घोषणा कर दी थी कि उनका थोड़ा सा सामान ट्रेन में साथ चला जाएगा।
सामान अपने बक्से में रखकर सुखदेई बाहर आई। बच्चे और रमन बाहर खड़े टैक्सी का इंतजार कर रहे थे। सामान टैक्सी में रखा गया। सुखदेई भी बैठ गई। स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी। जल्दी-जल्दी सामान रखकर सब लोग बैठ गए।
ट्रेन के रफ्तार पकड़ने के साथ सबने सामान ठीक से रखना शुरू कर दिया। रात को बहू जो पूड़ियां लाईं थी वही खाईं गईं, फिर सुखदेई सो गई। नींद में उन्हें लगा कोई धीरे से हिला रहा है। देखा तो बहू थी।
‘‘अम्मा जी उठिए स्टेशन आ गया।’’
‘‘अरे बहू अभी तो बहुत रात है। इतनी जल्दी।’’
‘‘आप उठिए तो।’’
‘‘सुखदेई उठ गईं। रमन और बच्चे?’’
‘‘उन्हें उठा रही हूं, पहले आप को दरवाजे तक पहुंचा आऊं।’’
हाथ पकड़कर बहू सुखदेई को दरवाजे तक लाईं और स्टेशन पर उतार दिया।
‘‘आप बैठी रहिए, बाकी सबको और सामान को भी ला रही हूं।’’
सुखदेई स्टेशन की जमीन पर ही बैठ गई। ठीक है, बूढ़े आदमी को पहले उतार देना ही ठीक है। सुखदेई ट्रेन की तरफ देखने लगीं। तब तक उन्हें लगा कि ट्रेन धीरे-धीरे रेंग रही है। जब तक वो कुछ समझती, तब तक ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली थी।
‘‘रमन-रमन, बहू-बहू,’’ उनका करुण क्रन्दन डिब्बों की घड़घ़ड़ाहट में विलीन हो गया। रमन सुबह उठा तो बहू रो रही थी।
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘अम्मां जी, अम्मा जी’’, क्या हुआ दादी को ?’’
‘‘पता नहीं कहां उतर गईं’’, पूरा डिब्बा छान मारा उनका पता नहीं है।
रमन और बच्चे पूरे डिब्बे में दादी-दादी पुकारते हुए दौड़ने लगे, लेकिन कहां थी दादी, जो उन्हें जवाब देती।
दिल्ली पहुंचकर रमन की समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी दोनों बुआओं को क्या कहें ? बहू ने ये काम अपने हाथ में ले लिया। फोन पर दोनों लड़कियों को बताया गया कि उनकी मां ट्रेन से कहीं रात के अंधेरे में उतर गई थीं। रेलवे पुलिस के सिपाहियों को मिली तो मरणासन्न अवस्था में थीं। वहीं एक अस्पताल में भर्ती कर उन लोगों ने रमन को बुलाया था। और उसी के सामने उन्होंने दम तोड़ दिया। लाश ज्यादा दिन रखने के काबिल नहीं थी। अतएव अंतिम संस्कार करके वे लोग वापस आ गए।
तेरह दिन बाद रमन गांव आया और वहीं अपनी बुआओं को बुलाकर धूमधाम से तेरहीं की। जमीन को बेचने का इंतजाम भी तुरत-फुरत हो गया। पण्डित द्वारा तर्पण करवाते समय जब खीर और भोज्य पदार्थ अर्पित किए जा रहे थे तो उस तर्पण की अधिकारिणी भूखी-प्यासी धूप में भीख का कटोरा लेकर खड़ी थीं।

डॉ.कनकलता तिवारी

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