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कश्मीरी पंडितों का कड़वा सच!… 33 सालों बाद कश्मीर लौट रहे कश्मीरी पंडितों की गिनती ‘पर्यटकों’ में हो रही है

सुरेश एस डुग्गर / श्रीनगर
कश्मीर में बहने वाली वितस्ता अर्थात जेहलम नदी का जन्मदिन, क्षीर भवानी में मत्था टेक और दशहरा मना कर कश्मीरी पंडित अपने दिलों में रुके पड़े सैलाब को तो बाहर निकाल रहे हैं, पर ये सब वे अपनी जन्मभूमि में वहां के वाशिंदे बन कर नहीं, बल्कि ‘पर्यटक’ बन कर ही कर पा रहे हैं। यह कड़वा सच है कि इन रस्मों और त्योहारों को मनाने वाले कश्मीरी पंडित कश्मीर में पर्यटक बन कर ही आ रहे हैं।

यूं तो उनकी इन रस्मों और त्योहारों को कामयाब बनाने में केंद्र व प्रदेश सरकार की अहम भूमिका रहती है, पर वह भी अभी भी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के लिए ‘पर्यटक’ ही मानती है। अगर ऐसा न होता तो कश्मीरी बच्चों को वादी की सैर पर भिजवाने का कार्य सेना क्यों करती और कश्मीर आने वाले पर्यटकों की संख्या में कश्मीरी पंडितों की संख्या को भी क्यों जोड़ा जाता।

यह हकीकत है। कश्मीर में आने वाले पर्यटकों की संख्या में पिछले कुछ सालों से प्रदेश प्रशासन अमरनाथ श्रद्धालुओं को भी लपेटता रहा है तो कुछ खास त्योहारों पर कश्मीर आए कश्मीरी पंडितों और विभिन्न सुरक्षाबलों द्वारा वादी की सैर पर भिजवाए गए उनके बच्चों की संख्या का रिकॉर्ड बतौर पर्यटक ही रखा जा रहा है। यही नहीं अब तो उस संख्या में माता वैष्णो देवी के तीर्थस्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं को भी जोड़ा जा रहा है, जो विश्व समुदाय को कश्मीर में लौटती शांति के तौर पर बताई जा रही है।

इससे कश्मीरी पंडित नाराज भी नहीं हैं। दरअसल, वे अपने पलायन के इन ३३ सालों के अरसे में जितनी बार कश्मीर गए ३ से ४ दिनों तक ही वहां टिके रहे। कारण जो भी रहे हों वे कश्मीर के वाशिंदे इसलिए भी नहीं गिने गए, क्योंकि कश्मीर के प्रवास के दौरान या तो वे होटलों में रहे या फिर अपने कुछ मुस्लिम मित्रों के संग। यह कश्मीरी पंडितों के साथ भयानक त्रासदी के तौर पर लिया जा रहा है कि वे कश्मीर के नागरिक तथा कश्मीरियत के अभिन्न अंग होते हुए भी फिलहाल कश्मीर तथा वहां की सरकार के लिए मात्र पर्यटक भर से अधिक नहीं हैं।

वैसे सरकारी तौर पर उन्हें कश्मीर में लौटाने के प्रयास जारी हैं। ३३ सालों में १,२०० के लगभग कश्मीरी पंडितों के परिवार कथित तौर पर कश्मीर वापस लौटे भी। पर उनकी दशा देख कश्मीरी पंडितों को उससे अच्छा विस्थापित जीवन ही लग रहा है। ऐसे में सरकार और कश्मीरी पंडितों की त्रासदी यही कही जा सकती है कि वे अपने ही घर में विस्थापित तो हैं ही, अब पर्यटक बन कर भी घूमने को मजबूर हुए हैं और जो ८०० परिवार सरकारी फ्लैटों में रह रहे हैं वे सरकारी नौकरी के बदले में मिलने वाली सुविधाओं के लिए मजबूरी में कश्मीर में ‘टिके’ हुए हैं।

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