विमल मिश्र
‘बुढ़वा मंगल’ संगीत और ऋतु पर आधारित जलोत्सव था, जिसकी टोन थी बनारसियत और उद्देश्य मिल-जुलकर मौज-मस्ती। ‘बुढ़वा मंगल’ होली के बाद आनेवाले मंगल को या संवत के अंतिम मंगल को हुआ करता था। ‘बुढ़वा मंगल’ बंद होने पर ‘गुलाब बाड़ी’ का क्रम शुरू हुआ।
काशी कई त्योहार दो और कभी-कभी तीन दिन मनाता है-एक शैव, दूसरा वैष्णव। काशी में जो भी, और जिस भी कामना से आया, अपने धर्म, देवताओं, विश्वास, आस्था, मान्यता, संस्कार, रीति-रिवाज और त्योहारों को लेकर यहीं स्थिर हो गया। सो यहां ‘सात वार और नौ त्योहार’ का मुहावरा चल पड़ा। शिवरात्रि, जब पूरा नगर ढोल-मंजीरों की हर्षध्वनि के बीच ‘बम बम भोले’ और ‘हर हर महादेव’ के नाद के साथ हाथों में गंगाजल लिए शिव अभिषेक के लिए उमड़ पड़ता है। देव दीपावली, जब लाखों दीपकों से प्रकाशित घाट और हर ओर आतिशबाजी व फूटते पटाखों के बीच गंगा के प्रशस्त वक्ष पर सैकड़ों की तादाद में नावें और लहरों पर डोलते जगमग दीप के नजारे हर ओर ‘हर हर महादेव’ का तुमुल कोलाहल के बीच दिखते हैं।
विभिन्न मूड के उत्सवों और तीज-त्योहारों की भरमार से काशी में आनंद के अवसरों की कमी नहीं है। गंगा दशहरा पर तैराकी, बिरहा और कुश्ती दंगल। सावन-भादों में कजरी दंगल और यादव भाइयों की धूमधाम के बीच कांवड़। माघ में पतंगबाजी दंगल। कव्वाली दंगल। वैâरमबोर्ड और शतरंज के दंगल। मंदिरों के शृंगार। भक्त समाज के कीर्तन, देवी जागरण, अखंड रामायण, हरिकथा। संकट मोचन जैसे संगीत कार्यक्रम, मिलन समारोह…। सावन में कांवड़ियों की बहार के साथ पूरा बनारस ही हिंडोला झूलने निकल पड़ता है। वर्षाकाल में हर ओर भगवा ही भगवा की बहार दिखेगी, क्योंकि चातुर्मास बिताने देश के हर कोने से आए साधु-संन्यासियों ने डेरा जमाया होता है। बहरी अलंग का मजा अलग।
होली और रंगभरी एकादशी
काशी की होली अपने मूड के कारण अलग सी जानी जाती है। समय के साथ इसने भी रूप बदला है। पहले दालमंडी की तवायफों के साथ खंसा मुस्लिम गायकों के दल गाजे-बाजे के साथ हिंदू भाइयों को त्योहार की बधाई देने जाते थे। धुरड्डी यानी होली के दूसरे दिन गधे पर उल्टे मुंह कर बैठे आदमी के पीछे नाचते-गाते लोगों का जुलूस निकला करता था। शहनाई के साथ होली गाते हुए ठठेरों के दल खासकर। अबीर-गुलाल और भंग-ठंडाई की पीनक में सने बनारसी शाम को अब भी मलमल के चुन्नटदार कुर्ते पहनकर लोग शान से होली मिलने और चौशष्टी देवी के मंदिरों का दर्शन करने निकलते हैं।
काशी में होली उत्सव की शुरुआत रंगभरी एकादशी से ही होती है। मान्यता है कि भगवान शिव माता पार्वती को विवाह के बाद पहली बार इसी दिन काशी लाए थे। शिव परिवार इस दिन सपरिवार काशी भ्रमण पर निकलता है। बाबा विश्वनाथ का अबीर-गुलाल से विशेष शृंगार होता है और भक्तों के साथ होली खेलते हैं खुद बाबा। विश्वनाथ मंदिर के मुख्य महंत डॉ. कुलपति तिवारी के आवास पर इस दिन पिछले ३५० वर्षों से लगातार पालकी पर विराजमान बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती एवं गणेश की चल रजत प्रतिमाओं के राजसी स्वरूप में दर्शन होते हैं। फिर मंदिर तक बाबा की शोभायात्रा निकाली जाती है।
एक तरफ जागृत चिता की लपटें, तो दूसरी तरफ ढोल, मजीरे, डमरुओं और ‘हर हर महादेव’ के नाद के बीच चिता के भस्म से होली खेलते साधु। मान्यताओं के अनुसार, रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन बाबा भोलेनाथ अपने प्रिय गण, भूत, प्रेत और भक्तों के साथ मणिकर्णिका पर जलती चिताओं के बीच भस्म होली खेलते हैं। वर्ष के एक दिन काशी में नगरवधुओं का नृत्य-मेला भी लगता है- बाबा महाश्मशाननाथ से मुक्ति की प्रार्थना करने के लिए। कुछ समय पहले यहां शास्त्रीय गायन का कार्यक्रम देनेवाली ‘पद्मश्री’ सोमा घोष बताती हैं, ‘ऐसी मिसाल विश्व में और कहीं नहीं है।’
चकाचक बनारसी द्वारा १९८० में होली की शाम अस्सी पर शुरू किए गए भांग-ठंडई के सुरूर और अबीर-गुलाल की रंगीनियत के बीच अल्हड़ अंदाज वाले अनूठे हास्य कवि सम्मेलन की अब यादें ही बची हैं, पर यह सम्मेलन अब भी जीवित है टाउनहाल में होनेवाले कवि सम्मेलन के रूप में। इस कवि सम्मेलन का कविता की मुख्य धारा से न कोई सीधा संबंध है, न कोई वर्जना। केवल हास्य कविता होती है और वह भी केवल गालियों में। देश-दुनिया की सरकारें हों, मंत्री हो या कलक्टर-सबकी बखिया उधेड़ी जाती हैं। श्रोताओं को कोई रचना उत्तम नहीं लगती तो बनारसी अंदाज में हूट करते हैं।
अब यादें ही बची हैं
समय के प्रवाह में काशी में ‘बुढ़वा मंगल’ सरीखे कई आयोजनों की अब यादें ही बची हैं। बुजुर्गों के मुंह सुन रखा है ‘बुढ़वा मंगल’ का आंखों को बांध लेनेवाला वह नजारा… अस्सी से पंचगंगा घाट तक जहां तक देखो, गंगा का प्रशस्त पाट सफेद चंदोवा लगे, एक-दूसरे से जुड़े, रईसों के एक और दो मंजिले बजड़ों, भौलियों, पटेलों व नावों और उनके कच्छों, झूमड़ों, कटर और सारंगा (छोटी नावों का हर समूह) से भरा हुआ, कुछ इस तरह कि आप इस पार से उस पार उस पर पैदल ही नाप लें। भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ गोपाल मंदिर और दूसरे मंदिरों के महंत, काशीराज सहित राजाओं व उमरावों और मुसलमानों के चंदन शहीद के मोटे गलीचे बिछे चंदवे, पुष्पसज्जित स्तंभों, शमादान, झाड़-फानूस और झालरों से सजे-धजे बजड़ों की नजर के लिए बड़ी संख्या में आंखें बिछी होतीं। उनसे उठता ‘हर हर महादेव’ का नाद गंगा को तरंगायित कर देता।
बजड़ों के भीतर का नजारा और भी दिलकश होता। पीपे पर पटरे बांधकर उन पर रंगशाला बना करती, जिस पर हंडों की रोशन में साजों के साथ कलाकारों की लड़ंत-भिड़ंत, वेश्याओं का नाच, शहनाई, गाना-बजाना-नाचना, नाटक, भांड, कव्वाली, लौंडा नाच, नौटंकी का तमाशा वगैरह हुआ करता। शाम ढलते ही मशालों की रोशनी में गंगा के समूचे विस्तार पर पूरा मीना बाजार सज जाता। जिस बजड़े पर मशहूर हुस्नाबाई, राजेश्वरी, मैना, विद्याधरी आदि की महफिल जमी हों शौकीन अपनी नावें उसी के साथ बंधवा लेते। पनवाड़ी छोटी नौकाओं से साथ घूमा करते। घाटों के साथ इन नावों पर भी पेट-पूजा के साथ भंग-बूटी और ठंडई का चौचक इंतजाम रहता। चुन्नटदार मलमल का कुर्ता पहने, आंखों में सुरमा लगाए, इत्र से महकते आम दर्शक लाखों की संख्या में दीपमाला से सजे घाटों से यह सारा नजारा देखते और नावों के झूमड़ के साथ-साथ कदमताल किया करते। यह ऐसा कार्यक्रम था, जिसमें काशी के गुंडे भी शान से भाग लिया करते।
‘बुढ़वा मंगल’ संगीत और ऋतु पर आधारित जलोत्सव था, जिसकी टोन थी बनारसियत और उद्देश्य था, सार्वजनिक रूप से मिलकर मौज-मस्ती। यह होली के बाद आनेवाले मंगल को या संवत के अंतिम मंगल को हुआ करता था। दुर्गाजी का दर्शन करने के बाद काशीवासी दुर्गाकुंड के पास इकट्ठा होकर मेला जाते, वन्य प्रदेश में गोठ (पिकनिक) करते और शाम को गंगा तट पर आ जुटते। ‘बुढ़वा मंगल’ के आयोजकों, दर्शकों और कलाकारों में धर्म-जाति, छोटे-बड़े और गरीब-अमीर का कोई भेद नहीं था। यह कई बार बंद और शुरू हुआ। १९३५-३६ ईस्वी मूल मेले के आयोजन का आखिरी साल था। ‘बुढ़वा मंगल’ बंद होने पर ‘गुलाब बाड़ी’ का क्रम शुरू हुआ, जिसकी थीम थी गुलाब। हर ओर गुलाब की पंखुड़ियां, गुलाब जल, सुगंध गुलाब और दीप गुलाब। आज इसकी याद दिलाती है तो कार्तिक में होनेवाली ‘देव दीपावली’ भी।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)