मुख्यपृष्ठस्तंभउत्तर की बात : कर्नाटक के नतीजों ने बढ़ाया विपक्ष का मनोबल

उत्तर की बात : कर्नाटक के नतीजों ने बढ़ाया विपक्ष का मनोबल

राजेश माहेश्वरी, लखनऊ

दक्षिण हिंदुस्थान के महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक में कांग्रेस ने जोरदार जीत हासिल की है। दक्षिण के इस किले को फतह करने के बाद कांग्रेस समेत विपक्ष का मनोबल बढ़ा है। २०२४ में होनेवाले आम चुनाव से पूर्व मिली इस जीत से जहां भाजपा की चिंता बढ़ गई है, वहीं विपक्ष ने दोगुने उत्साह के साथ आम चुनावों की तैयारियों और गठबंधन की राजनीति की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। कर्नाटक की जीत के बाद यह बात साफ हो गई है कि प्रधानमंत्री मोदी ‘अजेय’ नहीं हैं। उनके नेतृत्व और धुआंधार प्रचार के बावजूद भाजपा को चुनाव में हराया जा सकता है। यह कर्नाटक के जनादेश ने साबित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश के बाद कांग्रेस का ग्राफ जिस तरह से बढ़ रहा है, उसने भाजपा ही नहीं अंदर ही अंदर तीसरे मोर्चे की कोशिशों में लगी पार्टियों को बड़ा संदेश दे दिया है।
ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के नौ साल के अनवरत कार्यकाल के कारण उनकी छवि में ठहराव आया है अथवा उनके प्रति मोहभंग होने लगा है। कर्नाटक में भाजपा के पक्ष में ३६ फीसदी से अधिक वोट आए हैं। वर्ष २०१८ में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा वोट प्रतिशत इससे कम ही था और कांग्रेस को ३८.४ फीसदी वोट मिले थे, लेकिन सीटों के मामले में वह भाजपा से पिछड़ गई थी। अब खुद प्रधानमंत्री और भाजपा नेतृत्व को गहरा आत्ममंथन और विमर्श करना पड़ेगा कि हिंदुत्व के आधार पर ध्रुवीकरण के लिए आजमाए गए मुद्दों के बजाय किन मुद्दों पर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने हैं।
कर्नाटक में ८४ फीसदी से ज्यादा हिंदू हैं, लेकिन वे जातियों, वर्गों और समुदायों में बंटे हैं। कर्नाटक चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ‘बजरंग बली की जय’ बोली और जनता का उद्घोष भी कराया। उन्होंने यहां तक कहा कि पहले ‘बजरंग बली की जय’ बोलना और फिर वोट का बटन दबाना। सड़क से लेकर मंदिरों तक ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ किया गया, फिर भी इतने वोट नहीं मिल सके कि भाजपा जीत जाती। इसके अलावा राम मंदिर, टीपू सुल्तान, हिजाब, हलाला, केरल स्टोरी, लव जिहाद और मुस्लिम आरक्षण आदि मुद्दे भी गूंजते रहे। भाजपा की रणनीति थी कि ऐसे मुद्दों पर हिंदू तल्ख प्रतिक्रिया करेंगे और भाजपा के पक्ष में लबालब वोट करेंगे। यह रणनीति बिलकुल नाकाम रही। मतदाताओं ने इसे सिरे से नकार दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि दक्षिण में भाजपा का प्रवेश-द्वार कर्नाटक हिंदुत्व की प्रयोगशाला था, लेकिन हिंदू वोट बैंक ने विभाजित जनादेश दिया, जबकि १३ फीसदी मुसलमानों और २ फीसदी ईसाइयों में से ज्यादातर ने लगभग एकमुश्त वोट कांग्रेस के पक्ष में दिया। लिंगायतों के ४६ विधायक जीते हैं, जिनमें से ३७ विधायक कांग्रेस के हैं। भाजपा का परंपरागत समर्थक और हिंदू वोट बैंक इस तरह शिफ्ट हुआ है। आदिवासियों के लिए १५ सीटें आरक्षित हैं। सभी सीटें कांग्रेस की झोली में गईं। आदिवासी भी आस्था के आधार पर ‘हिंदू’ ही हैं। ग्रामीण इलाकों की कुल १५१ सीटों में से ९७ सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवार विजयी हुए हैं। इनमें भी अधिकांश ‘हिंदू’ हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत व भाजपा की हार के सौ कारण बताए जा सकते हैं। लेकिन इतना तय है कि कर्नाटक की जनता ने राज्य में भाजपा के शासन को नकारा है।
इसी साल तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं, जहां भाजपा हिंदुत्व की ही जमीन पुख्ता कर रही है। कांग्रेस को यह भी उम्मीद है कि कर्नाटक में भाजपा के खराब प्रदर्शन से तेलंगाना में उसकी संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, जहां केंद्र की सत्ताधारी पार्टी एक मुख्य खिलाड़ी के रूप में उभरने की कोशिश कर रही थी। भाजपा को इस साल राज्यों में होनेवाले चुनावों में ज्यादा दमखम लगाना होगा। यह २०२४ में होनेवाले लोकसभा चुनाव से पहले कर्नाटक की करारी शिकस्त से उबरने का टॉनिक होगा। फिलहाल, विपक्षी एकता की कोशिशों में तेजी आ गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं। नीतिश कुमार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हालिया मुलाकात में २०२४ को लेकर अहम बातचीत हुई है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अगर क्षेत्रीय दल तुच्छ स्वार्थों को त्यागकर देशहित के लिए एकजुट हो जाएं तो फिर भाजपा को सत्ता से बेदखल करना कोई बड़ी बात नहीं है। जिस तरह से कर्नाटक की जीत ने विपक्ष का मनोबल बढ़ाया है, उससे २०२४ में तस्वीर काफी हद तक बदलती हुई दिख रही है।
(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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