मंगलेश्वर (मुन्ना) त्रिपाठी
जौनपुर
कर्नाटक विधानसभा के लिए मतदान हो गया। अब १३ मई का इंतजार है, उस दिन नतीजे आने हैं। एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आँकड़ों के अनुसार कर्नाटक में ५८१ यानी लगभग २२ प्रतिशत प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनके अलावा ४०४ यानी सोलह प्रतिशत प्रत्याशी तो ऐसे भी हैं जिनके ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। एडीआर ने यह विश्लेषण उन आधिकारिक शपथ पत्रों के अध्ययन से किया है जो हर उम्मीदवार अपने नामांकन के साथ देता है।
८० के दशक में अपराधियों की राजनीति में प्रवेश की हुई शुरुआत हुई थी, जो अब उच्चांक पर पहुंच गई है। इसके विरुद्ध छोटी-मोटी मुहिम तो चली पर कोई आवाज बुलंद नहीं हो सकी। स्थिति यहां तक बिगड़ चुकी है कि अब माना जाने लगा है कि जितना बड़ा अपराधी, उतना बड़ा नेता। धारणा बन गई कि अपराधियों का साथ राजनीतिज्ञों को अच्छा लगने लगा है, क्योंकि इससे अर्थिक और राजनैतिक दोनों ही लाभ हैं। दरअसल, इन दिनों राजनीति और अपराध सिक्के के दो पहलू हैं। ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक आपराधिक छवि के लोग भरे मिलेंगे। अधिकांश जगहों पर बड़े अपराधी अपने गुर्गों को ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत, नगर पंचायत, पालिका जैसे स्थानों पर पहुंचाते हैं और उन्हीं गुर्गों के सहारे अपनी आपराधिक और राजनैतिक गतिविधियों को संचालित करते हैं। राजनीति में प्रवेश करनेवाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। सरकारी ठेके, शराब ठेके, बालू घाट का ठेका या जमीनी खरीद-फरोख्त, सड़क निर्माण जैसे सभी कार्य अधिकतर राजनीतिक माफियाओं के पास ही होते हैं। राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसक संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भविष्य की युवा पीढ़ी व जननायकों के लिए एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ की धारा ८ दोष सिद्ध राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है, परंतु विचाराधीन आपराधिक नेता जिन पर केवल मुकदमा चल रहा है, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगा आरोप कितना गंभीर है। ऐसे में न्यायपालिका की तरफ से पैâसले देने में देरी भी राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण और गंभीर वजह है। ऐसे में अपराधी से माननीय बने लोग पैसे और रुतबे के दम पर अपने विरुद्ध अदालती कार्रवाई को भी बाधित करते हैं। भारतीय राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने में मतदाता समाज का भी बराबर का योगदान रहा है। बहुधा आम मतदाता अपराधियों के धन और बाहुबल से प्रभावित होकर उनके पक्ष में मतदान कर देता है। आपराधिक राजनीति को कई फिल्मकारों ने पर्दे पर बखूबी परोस कर पैसा कमाने का माध्यम बनाकर फिल्म प्रेमियों के लिए मनोरंजन का संसाधन बनाया। देश की राजनीति और कानून निर्माण प्रक्रिया में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की उपस्थिति लोकतंत्र के पवित्र मंदिर में नकारात्मक प्रभाव के साथ आम जनमानस के लिए कोविड वायरस से ज्यादा खतरनाक बन गई है। राजनीति के आपराधीकरण का अर्थ राजनीति में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोगों और अपराधियों की बढ़ती भागीदारी से है। सामान्य अर्थों में यह शब्द आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का राजनेता और प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने का द्योतक है।
वोहरा समिति की रिपोर्ट और राष्ट्रीय आयोग की एक रिपोर्ट भारतीय राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी की पुष्टि करता है। बीते २० वर्षों के चार आम चुनावों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए वर्ष २००४ में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले १२८, वर्ष २००९ में १६२ और २०१४ में १८५ और वर्ष २०१९ में बढ़कर २३३ सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं एडीआर द्वारा ज़ारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष २००९ से २०१९ के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में कुल १०९ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में राजनतिक दलों को अपना नैतिक दायित्व निभाते हुए गंभीर अपराध में लिप्त या दोष सिद्ध लोगों को दल में शामिल करने और चुनाव लड़वाने से परहेज करना चाहिए। ऐसे में राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत किया जाना अति आवश्यक है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)