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कलंक है `बाल भिक्षावृत्ति!’

डॉ. रमेश ठाकुर

किसी भी विकसित मुल्क के लिए ‘बाल भिक्षा’ का बढ़ता साम्राज्य कलंक जैसा है। भिक्षावृत्ति की समस्या समूचे हिंदुस्थान में वैंâसर की भांति फैल चुकी है। इस समस्या के पीछे बड़ा संगठित गिरोह सक्रिय है, उसे भीख माफिया कहते हैं, जो मजबूती से प्रत्येक राज्यों में हावी हो चुके हैं। कई राज्यों में समय-समय पर भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध लगाया जाता है, बावजूद इसके समस्या की गति रुकने की बजाय तेज होती है। अभी कुछ महीने पहले राजस्थान सरकार ने भिक्षा मांगने पर बैन लगाया। खलबली मची तो वहां के भिखारियों ने दिल्ली, हरियाणा व मध्य प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों का रुख किया। उनको पता है कुछ समय तक सरकारी सख्तियां रहेंगी, बाद में स्थिति सामान्य हो जाएगी, फिर वापस चले जाएंगे। दिल्ली में भी केजरीवाल ने विगत दो वर्ष पूर्व कमोबेश कुछ ऐसा ही आदेश निकाला था। जो कुछ महीनों में दम तोड़ दिया, अप्रभावी हो गया। आज स्थिति यह है कि दिल्ली के प्रत्येक क्षेत्रों व यातायात परिक्षेत्र रेड लाइट पर आपको भिखारी भीख मांगते मिल जाएंगे, जिनमें बच्चों की संख्या ज्यादा दिखेगी। बच्चों के हाथों में गुब्बारे, पेंसिल आदि खिलौने दिखेंगे। एकबारगी देखने में ऐसा प्रतीत होगा, ये बच्चे सामान बेच रहे हैं, जबकि वह भीख मांगने का सहारा मात्र होता है।
सरकार-समाज को अच्छे से पता है कि बच्चे अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते, बल्कि वो संगठित भीख माफिया के हाथों की कठपुतली होते हैं। बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली और ओडिशा में भीख मांगने वाले बच्चों की संख्या विगत कुछ वर्षों से ज्यादा बढ़ी है। ये अधिकांश बच्चे गुमशुदा कैटेगरी के होते हैं। चाइल्ड ट्रैफिकिंग के शिकार बने होते हैं। इन बच्चों के हाथों में स्कूली किताबों की जगह भीख का कटोरा देखकर कलेजा कांप उठता है। भीख माफिया बड़े उद्योग के तौर पर उभरा है। इससे जुड़े लोगों पर कभी आंच नहीं आती। इस मामले में कानून बनाने वालों और कानून तोड़ने वालों में मिलीभगत रहती है। इन हालातों से निपटने के लिए सिस्टम को ज्यादा जवाबदेह होना होगा। मौजूदा सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के लिहाज से आने वाला समय कितना कठिन होनेवाला है इसलिए अभी ज्यादा देर नहीं हुई है। सख्त से सख्त कदम उठाए जाने की दरकार है।
केंद्र सरकार ने जनवरी २०२० से लेकर ३१ दिसंबर २०२२ तक का आंकड़ा प्रस्तुत किया, जिसमें अव्वल नंबर पर मध्य प्रदेश राज्य है। जहां से ३२,९७६ बच्चे गायब हुए, लेकिन अच्छी बात यह है कि उनमें ज्यादा बच्चे खोज लिए गए, वहीं दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल है। पश्चिम बंगाल में २७,१३३ बच्चे गायब हुए, जिनमें २४,६०३ बच्चों को खोज लिया गया। कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड आदि राज्यों से भी हजारों की संख्या में लापता हुए, खोजने के मामलों में स्थिति इन राज्यों की भी अच्छी नहीं है। गायब होने वाले बच्चों का कुल आंकड़ा पिछले तीन सालों में १ लाख ४६ हजार ३१६ है, जिनमें १ लाख २८ हजार ६६७ बच्चे ही खोजे गए, बाकी बच्चों की खोज अभी भी जारी है। अनुमान है कि ये सभी बच्चे भीख माफियाओं के चंगुल में फंसकर भीख मांगने के काम में लगे हैं।
प्रशासनिक आंकड़े संतोषजनक जरूर हैं, पर संतुष्टि भरे नहीं हैं?‌ कोरोना काल के दौरान और उसके बाद यानी तीन वर्षों में देशभर से करीब पौने दो लाख के आस-पास बच्चे अपनों से बिछड़े, जिनमें करीब नब्बे फीसदी बच्चे खोज लिए गए, लेकिन बाकियों का कोई पता नहीं चला, जो बच्चे नहीं मिल पाए, उनके आधार कार्ड भी बने हुए बताए गए हैं। बावजूद इसके पुलिस-प्रशासन द्वारा ट्रैक नहीं किए गए। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने लापता हुए बच्चों को सर्च करने के लिए एक ‘चाइल्ड ट्रैक पोर्टल’ तैयार किया है, जिसमें लापता बच्चों की जानकारियां बताई जाती हैं। वैसे सरकारी सख्ती के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी इस समस्या के प्रति हम सभी को चेतना होगा।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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