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सबसे पहले मुंबई में आए थे स्टूडियो

उम्र बूढ़ी हो गई…न ढर्रा बदला, न चाल। ग्लैमर और फैशन राजधानी मुंबई के फोटो स्टूडियो क्वालिटी से लेकर धंधे तक में अत्याधुनिक स्टूडियो को मात देते हैं। सबसे पहले मुंबई और कोलकाता में आए थे स्टूडियो, पर अब वे अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रहे हैं।

१८३९ में यूरोप में फोटोग्राफी का आविष्कार होने के दो दशक के भीतर फोटो स्टूडियो संस्कृति ने भारत में दस्तक दे दी थी। ये सबसे पहले प्रकट हुए कोलकाता और मुंबई में। शहर में सबसे पहले स्टूडियो १८६० और १८७० के दशक में फोर्ट इलाके में खुले। इनमें प्रमुख थे, लिंडसे एंड वॉरेन और बॉर्न एंड स्टीफर्ड। १८९० के दशक में खुला राजा दीनदयाल एंड संस व्हाइटवे लेडलॉ बिल्डिंग में होता था, जहां आज खादी भंडार है। इसी समय खुला वर्नम एंड कंपनी भी एक प्रतिष्ठित स्टूडियो था। ये सभी स्टूडियो अब इतिहास बन चुके हैं।
बदहाल हैं स्टूडियो

‘मैडम, लट ऊपर उठाओ’, ‘भाई साहब, जरा जुल्फें संवार लो’, जैसे शब्द अब भी कानों में बजते हैं। यह उन दिनों की बात है, जब स्टूडियो की सैर सिनेमाघर की हर महीने सैर के साथ परिवार की आदतों में शुमार थी। पैâमिली डॉक्टर की तरह पैâमिली फोटोग्राफर तय होता था। मांगलिक समारोह ही नहीं, जन्मदिन और छोटी-मोटी पार्टियों की आउटडोर व इनडोर शूटिंग में भी उसकी एक तय जगह थी। यह न भी हो तो पैâमिली फोटोग्राफर्स के लिए साल में वेकेशन जैसे एक-दो अवसर बन ही जाया करते थे। लोग महज शौक के लिए नहीं, जरूरत के हिसाब से भी स्कूल-कॉलेज के एडमिशन फॉर्म से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं, नौकरी की अर्जी से लेकर राशनकार्ड और प्रोफाइल बनवाने के लिए अलग-अलग साइज के फोटो खिंचवाते थे। शादी-ब्याह का मौसम में तो फोटोग्राफर के पौ-बारह रहते थे। १९८० तक-जब तक ब्लैक एंड व्हाइट युग रहा फोटोग्राफी की संस्कृति बहुत फली-फूली। १९८५ से कलर वैâमरों ने जगह बनानी शुरू कर दी। अब अंदर और बाहर भीड़ के साथ हर गली-मोहल्ले में स्टूडियो थे। १९९० आने तक मध्यम वर्गीय घरों में स्कूटर, टीवी और प्रिâज के साथ कलर वैâमरे भी आम होने लगे।

पर ‘रील जमाओ, फोटो खींचो, धुलाई कराओ और फिर फोटो आने का इंतजार करो’ की झंझट अभी बरकरार थी। २००० में डिजिटल फोटोग्राफी के आने से ये टंटे भी जाते रहे। २००४ में मोबाइल वैâमरे ने तो गजब ही ढा दिया। आज तो तीन-चार साल के बच्चे भी मोबाइल हाथ में लेकर ‘क्लिक-क्लिक’ करते हैं। मोबाइल युग ने फोटोग्राफी में नया शब्द जोड़ दिया है ‘मोबाइल फोटोग्राफी।’ साधारण मोबाइल में भी १० मेगा पिक्सल तक के वैâमरे आम होने से अब हर कोई फोटोग्राफर है। न हाई एंड वैâमरे की जरूरत है और न ही हाई फाई लैब की। फोटो लिया और फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर डाल सभी को दिखा दिया। फोटोग्राफी जो कभी धंधा बन लाखों लोगों को रोजी-रोटी मुहैया कराता था, अब केवल शौक बनकर रह गया। साधारण वैâमरे में भी ऐसी तकनीकें हैं, जो आपको प्रोफेशनल कांपीटिशंस में भी अवॉर्ड दिला सकती हैं। फोटोग्राफी अब व्यवसाय से ज्यादा शौक बन गई है। निवेश, मेहनत और कौशल के लिहाज से फोटोग्राफी पहले एक सदाबहार और कामयाब धंधा था। कलर फोटोग्राफी के कॉमन होने के काफी बाद तक भी रहा, पर सस्ते कलर वैâमरों और मोबाइल फोटोग्राफी ने उसकी जान निकाल दी। निगेटिव डिवेलपमेंट के लिए डार्करूम आदि की आवश्यकता नहीं रहने से यह शौक सस्ता हो गया। इसने फोटोग्राफी उद्योग में रोजगार की कमर ही तोड़ डाली। हर नुक्कड़-चौराहे पर उग आने वाली प्रोसेसिंग यूनिट्स बंद होने लगीं। कुछ हजार खर्च करके अब घर में ही ‌‌प्रिंटर ले आओ और मोबाइल पर ही फोटो एडिट करके उसे ‌प्रिंट भी कर लो। इसी तरह प्रोफाइल फोटो और शॉपिंग के विशेष अलबम बनाने के लिए विशेष सॉफ्टवेयर ने फोटोग्राफर की जरूरत ही हटा दी। पासपोर्ट सेवा केंद्र में अब ऑनलाइन ही फोटो खींचे जाने का चलन स्टू‌डियो की कमाई पर कहर बनकर बरसा है। कई ऐप्लिकेशंस भी अब ऑनला‌इन हो रही हैं यानी, पासपोर्ट फोटो भी विदा होने की तैयारी में है। इकबाल सैयद के ४७ साल पुराने रेनबो स्टूडियो को तो कभी-कभी हज के लिए पासपोर्ट फोटो खिंचाने वाले ग्राहकों के भी लाले पड़ जाते हैं। एक स्टूडियो वाले ने आजिजी से बताया, ‘१९७० में पासपोर्ट साइज फोटो ढाई रुपए में मिलता था। आज २००-२५० रुपए के भीतर अलग-अलग साइज का पूरा सेट मिल जाता है।’ २००५ के बाद स्टूडियो कारोबार में शुरू मंदी का दौर अब विषम दौर में पहुंच गया है। मुलुंड के ७० साल पुराने राज स्टूडियो के मालिक हीरालाल कृष्णचंद्र तलरेजा बताते हैं, ‘कुछ साल में मुंबई के ५० से ज्यादा स्टूडियो बंद हो गए हैं।’ इनमें मेरे अपने छह स्टूडियो शामिल हैं।’
कोरा अलबम

‘मैडम, फोटो’, ‘सर, फोटो’-गले में वैâमरा टांगे, कंधों पर पोर्टेबल प्रिंटिंग मशीनों सहित साज-सामानों का बैग लटकाए और हाथों में अलबम लिए पर्यटकों के आगे-पीछे घूमते फोटोग्राफरों का गेटवे ऑफ इंडिया का दृश्य आपको याद होगा। अब यहां आने वाले हर टूरिस्ट के हाथ में वैâमरा है, नहीं तो मोबाइल। अपने फोटो वे खुद ही खींच लेते हैं या एक-दूसरे की मदद कर देते हैं। गेटवे ऑफ इंडिया ही नहीं, छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस, म्यूजियम, फ्लोरा फाउंटेन, काला घोड़ा, मलबार हिल, हैंगिंग गार्डन, कमला नेहरू पार्क, चौपाटी- सभी जगहों से प्रोफेशनल फोटोग्राफर की पूछ-परख खत्म हो गई है। सीनियर फोटोग्राफर अशोक गुप्ता बताते हैं, ‘पहले की तुलना में यहां अब सिर्फ ३० फीसदी फोटोग्राफर हैं’ और ये सभी लाइसेंसधारी नहीं। मलबार हिल, हैंगिंग गार्डन, कमला नेहरू पार्क, चौपाटियों और फिल्म स्टार्स के घर के बाहर फोटो खींचने वाले कासिम खान जैसे फोटोग्राफर्स की हालत कुछ बेहतर है, क्योंकि यहां सैलानियों को प्रोफेशनल हैंड चाहिए। मोहम्मद शेख जुहू पर आम दिनों में एक फोटो का ८० रुपए और संडे व छुट्टियों के दिन ५,०० रुपए कमा लेते हैं। इन पर्यटन स्थलों के फोटोग्राफरों में कई के पास अपनी

मोटरसाइकिल हैं और वे ग्राहकों के साथ ही गाइड की दोहरी भूमिका में भी साथ चलते हैं। पर, यह सौभाग्य किसी-किसी को और कभी-कभी ही मिलता है। मोबाइल फोटोग्राफी पर्यटन स्थलों के इन फोटोग्राफरों पर आफत बनकर बरसी है। बगैर किसी साप्ताहिक छुट्टी के, सुबह से रात तक खटने वाले कई फोटोग्राफर जब घर लौटते हैं तो कइयों की बोहनी तक नहीं हुई होती। पुलिस और महानगरपालिका अधिकारियों की ज्यादतियों का निशाना अलग से। अपनी परेशानियों से इन लोगों ने यूनियन बनाकर मुकाबले की कोशिश की, पर व्यर्थ। ठाणे के वि‌शाल ऐसे ही फोटोग्राफर हैं। महंगे उपकरणों में निवेश करने वाले पर्यटक स्थानों के कुछ फोटोग्राफर प्रदेश के पर्यटन विभाग और मुंबई दर्शन जैसे कार्यक्रमों से जुड़ गए हैं। कुछ फोटोग्राफर मूल शहरों या गांव में अपने परिवार छोड़कर आए हैं। ज्यादातर पढ़े-लिखे नहीं होने के कारण उन्हें ड्रॉइवर और वॉचमैन जैसे कामों से संतोष करना पड़ रहा है। उमेश सिंह यह बताते हुए उदास हो गए हैं, ‘जल्द ही जो मिल रहा है वह भी बंद हो जाएगा।’ इसके बाद वे क्या करेंगे, उन्हें मालूम नहीं।

(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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