सामना संवाददाता / मुंबई
यदि आठ साल पहले प्रशासन ने इर्शालवाड़ी के गांव वालों की मांगों पर ध्यान दिया होता तो इर्शालवाड़ी में इतना भीषण हादसा न होता और न ही इर्शालवाड़ी के आदिवासियों को अपनी जान से हाथ न धोना पड़ता।
पुणे के निकट मालीण गांव में २०१४ में हुए भूस्खलन से सौ के करीब लोगों की मौत के बाद इर्शालवाड़ी के निवासियों को किसी अनहोनी की आशंका होने लगी थी। गांव के कुछ लोगों ने २५ जून २०१५ को जिलाधिकारी से उनके गांव का पुनर्वसन वाड़ीची चौक में करने की मांग की थी। गांव वालों ने स्वास्थ्य केंद्र के पास स्थित `चौक’ इलाके के पास सर्वे क्रमांक २७ पर पुनर्वसन के लिए लिखित तौर पर मांग की थी। इस मांग के मद्देनजर तत्कालीन जिलाधिकारी ने २९ जुलाई २०१५ को पनवेल के प्रांत अधिकारी को एक पत्र भेजकर इस मामले में उचित कार्रवाई करने कहा था। लेकिन प्रशासन इस मामले में आंखें मूंदे रहा।
अपने पुनर्वसन की मांग पर किसी तरह की कार्रवाई न होता देख, इर्शालवाड़ी के निवासियों ने `नंवबराची वाड़ी’ नामक स्थान पर खुद ही झोपड़ियां बनाना शुरू कर दिया था, लेकिन वन विभाग ने उनकी झोपड़ियों को यह कहते हुए तोड़ दिया कि यदि उन्होंने वन की भूमि पर अवैध निर्माण किया तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। वन विभाग की धमकी के बाद वे लोग अपने पुराने आशियाने इर्शालवाड़ी लौट आए।
यदि प्रशासन ने आठ साल पहले इर्शालवाड़ी के निवासियों के पुनर्वसन की मांग पर उचित ध्यान दिया होता, चौक में उनका पुनर्वसन कर दिया होता या फिर मानवता के आधार पर वन विभाग ने उन्हें रहने की अनुमति दे दी होती तो शायद २७ लोगों की जान नहीं जाती और ५७ लोग मलबे के तले दबकर लापता नहीं होते।
महाराष्ट्र के भूस्खलन संवेदनशील पहाड़ी इलाकों की रिपोर्ट तैयार करने वाले देश के जाने-माने जियोलॉजिस्ट ने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के इस वक्तव्य पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि इर्शालवाड़ी भूस्खलन संवेदनशील इलाके में नहीं आता था। फिलहाल, खबर है कि कोकण के डिविजनल कमिश्नर डॉ. महेंद्र कल्याणकर ने इस मामले में जांच के आदेश दिए हैं।