मुख्यपृष्ठस्तंभदेश में ‘मंगल’ होना चाहिए... वंदे मातरम्!

देश में ‘मंगल’ होना चाहिए… वंदे मातरम्!

अनिल तिवारी

आज का दिन इतिहास के पन्नों में महत्व का दिन है, बल्कि आज का वर्तमान भी इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है। १८५७ में जहां आज के दिन महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे को फांसी दी गई थी, वहीं १८९४ में बंकिम चंद्र चटर्जी का देहावसान हुआ था। इन दोनों महान शख्सियतों के बारे में ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं। मंगल पांडे ने जहां गुलाम हिंदुस्थान में देशभक्ति की पहली चिंगारी भड़काई थी, तो उस चिंगारी को ज्वाला बनाने का काम बंकिम चंद्र द्वारा लिखित ‘वंदे मातरम्’ ने किया था। जिस वक्त अंग्रेजों के जुल्म, अन्याय और अराजकतावादी माहौल में आशा की किसी किरण की जरूरत थी, तो देश के इन सपूतों ने अंधकार में रोशनी दिखानेवाला कार्य किया था। स्वतंत्रता के अमृतकाल में आज अनायास ही उस ‘जज्बे’ को याद कर लेने का मन कर गया।
शहीद मंगल पांडे ने १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका था। मंगल पांडे ईस्ट इंडिया कंपनी की ३४वीं बंगाल नेटिव इंपैंâट्री के सिपाही थे। १८५७ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंपैंâट्री को गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूस सौंपे, जिनके खोल को मुंह से खोलकर नई एंफील्ड राइफल में लोड करना होता था। अंग्रेजों का मकसद हिंदुस्थान पर केवल राज करना नहीं था, बल्कि उनका मकसद हिंदुस्थानियों को जेहनी तौर पर भी हराने का था। इसलिए हिंदुओं और मुसलमानों को आहत करने व उनकी आस्था से खिलवाड़ करने का दांव उन्होंने चला था। अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को मंगल पांडे समझ चुके थे और वे इसका इंतकाम लेना चाहते थे। इसी क्रोध में उन्होंने ब्रिटिश सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट बाग पर गोली चला दी। खैर, वो गोली उन्हें लगी तो नहीं पर इस अपराध के लिए मंगल पांडे को फांसी की सजा सुना दी गई और फांसी के लिए तय तारीख से दस दिन पहले ही ८ अप्रैल, १८५७ को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पांडे की जीवन ज्योति बुझते ही हिंदुस्थान में स्वतंत्रता की पहली चिंगारी फूट उठी।
कई बार देश और समाज में ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जब किसी मंगल पांडे की जरूरत महसूस होने लगती है। समाज में कटुता और देश में अराजकता का जब माहौल दिखता है तो ‘वंदे मातरम्’ की याद आ जाती है। उस ‘वंदे मातरम्’ की जिसके बंकिम चंद्र चटर्जी रचयिता थे। यह राष्ट्रगीत यदि न होता, तो शायद स्वतंत्रता की अग्नि को जन-जन तक ज्वाला बनाकर पहुंचाना इतना आसान भी नहीं होता। खैर, आज स्वतंत्रता के ७५ वर्ष बीत जाने के बाद एक बार फिर देश के शहीद मंगल पांडे जैसे किसी वीर की आवश्यकता महसूस आन पड़ी है, तो वहीं फिर एक बार हर जुबां पर ‘वंदे मातरम्’ की गूंज जरूरी लगने लगी है। सिर्फ इसलिए नहीं कि आज इन दोनों महान विभूतियों की पुण्यतिथि है, बल्कि इसलिए भी कि आज सही मायने में शहादत और सामाजिक समरसता की जरूरत है।
आज देश जिस दौर से गुजर रहा है, उसे देखकर राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने के जज्बे की जरूरत है। खासकर, आज की राजनीति और आज का शासन तंत्र जिस तरह से व्यवहार कर रहा है, जहां विरोधियों की आलोचना को अपराध माना जा रहा है, जहां प्रजातंत्र को कमजोर किया जा रहा है, जहां विपक्ष को मिटाने का प्रण लिया जा रहा है, साम-दाम, दंड-भेद से शत-प्रतिशत का नारा लगाया जा रहा है, वहां एक बार फिर देश को सामाजिक तौर पर एकजुट करने के लिए, एक दिशा दिखाने के लिए शहीद मंगल पांडे जैसे दिशा प्रदर्शक की आवश्यकता महसूस होने लगी है। देश में सामाजिक एकजुटता इसलिए जरूरी नहीं है कि किसी सत्ताधारी पार्टी को पदच्युत करना है, बल्कि यह एकजुटता इसलिए जरूरी है कि देश का प्रजातंत्र मजबूत होना चाहिए। अमेरिका इस दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र जरूर है, पर इस दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हिंदुस्थान है, इसलिए यहां लोकतंत्र का कमजोर होना इस दुनिया की आत्मा के अशक्त होने जैसा है। यह जनमानस के अधिकारों को कमजोर करने जैसा है। पिछले कुछ अर्से से देश में किसी की राजनीति जरूर मजबूत हुई है, बेहद मजबूत हुई है, इसमें कोई शक नहीं है, पर उसकी मजबूती के साथ ही इस देश का प्रजातंत्र कमजोर हुआ है। यह चिंता का विषय है। देश के प्रजातंत्र का कमजोर होना देश के हर नागरिक के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। जिस तरह से शहीद मंगल पांडे ने अंग्रेजों की तानाशाही, उनकी बदनीयती को पहचाना था और उसके विरोध में अकेले ही लोहा लिया था, आज देश में उसी भावना की जरूरत है। जरूरत है किसी बंकिम चंद्र की जोशीली पंक्तियों की। जरूरत है फिर से ‘वंदे मातरम्’ के सही अर्थ को पहचानने की और ‘वंदे मातरम्’ की लाज बचाने की।

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