– प्रमोद भार्गव
मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार चरम पर है। भोपाल में सचिवालय से लेकर तहसील स्तर तक हर जगह कदाचरण व्याप्त है। सहकारी संस्थाएं और नगरीय निकाय भी इससे नहीं बचे हैं। पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी इस दुराचरण में लिप्त हैं। रंगे हाथों पकड़े गए रिश्वतखोरों और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्यवाही के लिए गठित लोकायुक्त एवं आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्ल्यू) भ्रष्ट अधिकारियों की राजनीतिक और प्रशासनिक पहुंच के चलते बौने साबित हो रहे हैं। नतीजतन मामलों में जांच पूरी होने के बाद भी दोनों ही एजेंसियों को न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने के लिए संबंधित विभागों से अभियोजन हेतु स्वीकृतियां नहीं मिल रही हैं। लोकायुक्त में फिलहाल २७४ प्रकरणों में ४१९ भ्रष्टाचार के विरुद्ध और आर्थिक अपराध शाखा में ३६ प्रकरणों में ९७ भ्रष्टाचारियों के खिलाफ स्वीकृतियां लंबित हैं।
प्रदेश में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत रंगे हाथों रिश्वत लेने से लेकर गबन एवं धोखाधड़ी के मामले में आईएएस अधिकारियों से लेकर चपरासी तक दर्ज हैं। एक दशक पहले जो सरकारीकर्मी प्राथमिक दृष्टि से ऐसे मामलों में दोषी पाए गए थे, उनके प्रकरणों को भी आगे बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने मंजूरी नहीं दी थी। यानी बीते १० साल मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान नौकरशाहों को संरक्षण देते रहे। इसी प्रक्रिया का अनुकरण मुख्यमंत्री मोहन यादव कर रहे हैं, जबकि इनमें से कई सेवानिवृत्त होकर आराम की जिंदगी बेफिक्री से सदाचार से कमाए धन पर जी रहे हैं। ३१ जुलाई २०२० को सेवानिवृत्त हो चुके रमेश थेटे के विरुद्ध लोकायुक्त द्वारा दर्ज किए गए दो दर्जन से अधिक मामले मंजूरी के लिए लंबित हैं। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत लोकायुक्त ने पांच आईएएस अधिकारियों के खिलाफ वर्ष २०१९ में कदाचरण के मामले दर्ज किए थे, लेकिन सामान्य प्रशासन विभाग ने अभियोजन की स्वीकृति अभी तक नहीं दी है।
मध्य प्रदेश में जिला प्रशासन और पुलिस सत्तारूढ़ दल के पक्ष में किस तरह से काम कर रहे हैं, कुछ समय से इसकी बानगियां लगातार देखने में आ रही हैं। ग्राम पंचायत और नगरीय चुनाव में प्रशासन का यह दखल खुले रूप में देखने में आया था। यहां तक कि उच्च न्यायालय जबलपुर के न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल को एक मामले की सुनवाई करते हुए खुली अदालत में बेहद तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी थी। उन्होंने सख्त लहजे में कहा था कि पन्ना के जिला निर्वाचन अधिकारी एवं कलेक्टर संजय कुमार मिश्रा ने ग्राम पंचायत चुनाव में सरकार के राजनीतिक एजेंट की तरह काम किया है। लिहाजा, उन्हें पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है। उनके रवैये से ऐसा जाहिर हुआ है कि उन्हें नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर भरोसा नहीं है और मनमानी ही उनका आचरण है।
ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र की प्रशिक्षु आईएएस अधिकारी पूजा खेड़कर के संदर्भ में दिखाई दे रहा है। उन्होंने चोरी के एक आरोपी को रिहा करने के लिए डीसीपी स्तर के एक अधिकारी पर दबाव बनाने की कोशिश की थी। पनवेल पुलिस थाने में १८ मई को खेड़कर ने पुलिस उपायुक्त विवेक पानसरे को कथित तौर पर फोन कर चोरी के मामले में गिरफ्तार यातायात कारोबारी ईश्वर उत्तरवाड़े को रिहा करने का आग्रह करते हुए उन्हें निद्रोष बताया था। इस पर पानसरे ने कहा कि उत्तरवाड़े अभी न्यायिक हिरासत में हैं। यही नहीं इस मामले के बाद पूजा और उनके परिजनों के द्वारा प्रशासनिक सेवा में चयन के लिए जो कदाचरण अपनाया वह भी एक शर्मनाक उदाहरण बनकर मीडिया में सुर्खियां बना हुआ है। भारत की सबसे प्रतिष्ठित और पारदर्शी माना जाने वाला संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाएं भी ऐसे प्रकरणों के सापेक्ष कटघरे में दिखाई देती हैं। पूजा को ८४१वीं रैंक हासिल हुई है, वह अब गलत दस्तावेजों के आधार पर संदेह के घेरे में आ गई हैं। इस प्रकरण से पता चलता है कि यदि आप करोड़पति हैं और आपकी पहुंच राजनीति और प्रशासन में है तो आप कहीं भी सेंध लगाने में सफल हो सकते हैं। पूजा ने ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर बताकर एक ओर तो आरक्षण का लाभ लिया, दूसरी तरफ दिव्यांग होने का प्रमाण-पत्र भी हासिल कर लिया। इन दोनों सुविधाओं का लाभ उठाकर वे दोनों हाथों में लड्डू लिए आईएएस भी बन गर्इं। शिकायत होने पर उन्हें अनेक बार चिकित्सा परीक्षण के लिए बुलाया गया, लेकिन वे उपस्थित नहीं हुर्इं। देश की उच्चतम प्रशासनिक व्यवस्था किस कदर लाचार है, यह उसकी एक बानगी भर है। उन्होंने जो आचरण किए हैं, वे उनकी बर्खास्तगी के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं, लेकिन राज्य सरकार कार्यवाही की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है।
जिला प्रमुख ‘कलेक्टर’ नाम से वह अर्थ और ध्वनि नहीं निकलते हैं, जो उनकी कार्यशैली और कार्य क्षेत्र का हिस्सा हैं। कलेक्टर का सामान्य अर्थ संग्राहक, संग्रहकर्ता, संकलनकर्ता, एकत्रित करनेवाला अथवा कर उगाहने वाला होता है। जबकि हमारे यहां पदनाम का दायित्व जिले की कानून व्यवस्था और प्रशासनिक दायित्व से जुड़ा है। इसलिए कलेक्टर को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अर्थात जिला दंडाधिकारी भी कहा जाता है। कलेक्टर को जिलाधिकारी अथवा जिलाधीश के पदनामों से भी जाना जाता है, किंतु कलेक्टर पदनाम इतना प्रचलित और प्रभावशील हो गया है कि जो भी आईएएस बनते हैं, उन्हें सबसे ज्यादा गौरव का अनुभव कलेक्टर बनने या कलेक्टर कहलाने में ही लगता है।
कलेक्टर हो या कोई अन्य लोकसेवक उसकी गुणवत्ता का मापदंड, उसकी दक्षता, ईमानदारी, कार्यक्षमता और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता से होती है। नीतियों व कार्यों पर यदि ठीक से अमल नहीं होता है तो गुणवत्ता ध्वस्त हो जाती है। प्रत्येक राज्य सरकार अनेक श्रेष्ठ नीतियां गरीब, वंचित और किसानों के हित में बनाती हैं लेकिन प्रशासनिक अकुशलता और भ्रष्टाचार के चलते परिणाम के स्तर पर अमल दोषपूर्ण रहता है। यही वजह रही कि मध्य प्रदेश में क्लर्क से लेकर आईएएस तक जिन अधिकारियों के यहां लोकायुक्त पुलिस ने छापे डाले हैं, उनके यहां से करोड़ों की चल-अचल संपत्तियां बरामद हुई हैं। रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद ये लोकसेवक धनबल व अपनी पहुंच के जरिए बेदाग बच निकलते हैं। बहरहाल यदि यही राग चलता रहा तो वह समय दूर नहीं जब सरकारी मशीनरी के अराजक होने की आशंकाएं बढ़ जाएंगी और अंतत: इस अराजकता का जवाब कहीं जनता भी अराजक होकर नहीं देने लग जाए?