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ये रास्ता है जिंदगी

विमल मिश्र
मुंबई

बेघरबारों की शरणगाह, संघर्ष करने वालों की ख्वाबगाह और धंधा करने वालों की रोजी-रोटी। मुंबई के फुटपाथ उतने ही जीवंत हैं, जितनी यहां की जिंदगी। मुंबईवालों ने अपने फुटपाथों को नाम भी दे रखे हैं।
स्टोव पर चढ़े बर्तनों की खद-बद, चादरों के पीछे छिपे नहान, खाटों पर गप्पे, ताश का खेल और खुलेआम प्रणय। मुंबई के फुटपाथ संघर्ष की मिसाल हैं। उतने ही जीवंत, जितनी मुंबई की जिंदगी। यह वह शहर‌ है, जहां लोग फुटपाथों पर ही शादी-विवाह और संतानें पैदा कर गृहस्थी बसाते हैं। बारिश हो, सर्दी या गर्मी पूरी जिंदगी बसर कर लेते हैं।
फोर्ट, कोलाबा, मस्जिद, भूलेश्वर, दादर, बांद्रा जैसी जगहों के कई फुटपाथों पर आप बाजार भी सजे देख लेंगे। कपड़े, मोबाइल, खिलौने, ड्रग-यहां क्या नहीं मिलता। स्मगलिंग के सामानों का सबसे चोखा धंधा यहीं होता है। फुटपाथों पर धंधा करने वाले कितने ही लोग करोड़पति हो गए हैं। महानगरपालिका कर्मचारियों की धाड़ के दौरान आपने फुटपाथ पर सजी अवैध दुकानों से सामान लेकर भागते हॉकरों को भी देखा होगा। बहरहाल, इन फुटपाथों पर बसी कई बस्तियों को वैध ही नहीं माना जाता, एवजी निवास और बैंकों से कर्ज सहित तमाम सुविधाएं भी मिलती हैं।
बसेरे जिंदगी के
अगर आप मुंबई घूमने आ रहे हैं तो गेटवे ऑफ इंडिया और मरीन ड्रॉइव के अलावा फोर्ट का फैशन स्ट्रीट भी आपके कार्यक्रम में जरूर होगा। फैशन स्ट्रीट ग्लैमर और फैशन नगरी की पहचान है। यहां माल लेने अफ्रीकी देशों से ही नहीं, कारोबारी ग्रीस और इंग्लैंड से भी आते हैं। गाहे-बगाहे फिल्मी और ग्लैमर जगत की हस्तियां भी।
मुंबई के फुटपाथ संघर्ष की मिसाल हैं। कृष्ण चंदर और ख्वाज अहमद अब्बास के लिखे किस्सों में आप मुंबई के कई फुटपाथ पा लेंगे। फिल्मों में भी। ‘आवारा’ व ‘चार सौ बीस’ सहित राजकपूर की कई फिल्मों की पृष्ठभूमि फुटपाथ हैं। यही नहीं, ‘फुटपाथ’ नाम की ही एक फिल्म भी है। अमिताभ बच्चन ने शहर की कई शुरुआती रातें मरीन ड्रॉइव की बेंचों पर गुजारी हैं। वैसे फुटपाथ मुफ्त हों, जरूरी नहीं। यहां सोने की कुछ फुट जगह के लिए प्रोटेक्शन मनी के रूप में हफ्ता भी लग सकता है। इसे वसूलते हैं, बाहुबली लोकल दादा और कभी-कभी भ्रष्ट पुलिसवाले व म्युनिसिपलिटी कर्मचारी भी। इन फुटपाथों पर इंसानियत और वहशियत की कहानियां भी बिखरी पड़ी हैं। इन्होंने लीडर भी बनाए हैं और लिगन्ना पुजारी, जंग बहादुर थापा, माया डोलस जैसे माफिया डॉन भी। यह अपराधों का भी अड्डा है। कुख्यात ‘स्टोनमैन’ द्वारा की गई बर्बर हत्याओं के बारे में आपने सुना, पढ़ा और देखा ही होगा। सबसे नई कहानी है शातिर चोरों द्वारा एक फुटपाथ खोदकर उसके नीचे टेलिफोन, केबल और गैस जैसी सुविधा प्रदाताओं द्वारा बिछाए धातु के महंगे केबल और दूसरे सामान चुरा ले जाना।
सफर के रास्ते
‘मुंबई जैसे संपन्न शहर में म्युनिसिपल कमिश्नर या उनके बिल्कुल पास मुकेश अंबानी के घर के रास्ते पर भी फुटपाथ नहीं है।’ जाने-माने परिवहन विशेषज्ञ और लेखक विद्याधर दाते खेद के साथ बताते हैं’, ‘और जहां हैं, वहां भी सुरक्षित नहीं हैं।’ शायद ही कोई हफ्ता ऐसा जाता हो, जब हत्यारे मोटर वाहनों से शहर में फुटपाथ पर पैदल चलने वालों की दुर्घटना में मौत की खबर सुनने को न मिले। दाते का मानना है कि पैदल चलने वाले वाहनों की तरह कोई प्रदूषण नहीं पैâलाते, उल्टे पर्यावरण की रक्षा करते हैं, पेट्रोल-डीजल का इस्तेमाल नहीं करके। विदेशी मुद्रा बचाते हैं सो अलग। उन्हें अच्छी सुविधाएं मिलें, इसका मूलभूत अधिकार उन्हें लोकतंत्र के तहत मिलना चाहिए। मुंबई की दूसरी बातों की तरह अब उसके फुटपाथ भी बदल रहे हैं। यहां के बहुतेरे फुटपाथों पर आपको बोलार्ड, रेलिंग्स, बस स्टैंड, बेंच, साइनेज, पोस्ट बॉक्स, टेलिफोन बूथ तक, फोन बॉक्स, स्ट्रीट लैंप, फाउंटेन, शौचालय-मूत्रालय, वेस्ट बास्केट व डस्टबिन, आदि मिल जाएंगे।
बेघरबारों की शरणगाह
जब टाइम्स ऑफ इंडिया में था, तब बगल की गली से मेट्रो सिनेमा की तरफ जाते ही पहला साबका बीएमसी की कचरा कुंडी के सामने, लोहे की खस्ताहाल ट्रॉली को तंबू बना उसमें गृहस्थी समेटे बैठी ‘विमन विद दि डॉग’ से पड़ता था। मुफलिसी, बीमारी और असमय वैधव्य-५५ की उम्र में ही मीना सोलंकी ७५ की लगने लगी थीं। कचरा बिनना जीविका और २५ साल से संगी कुत्ते टाइगर को छोड़ उनकी दुनिया में कोई रंग या रौनक नहीं थी। मीना जैसे एक लाख से ज्यादा बेघर मुंबई की गलियों, सड़कों, फुटपाथों और अवैध झोपड़ियों में रहते, छोटे-मोटे काम करके गुजर करते हैं।
एक जमाना था, जब मदनपुरा, रे रोड, परेल, सायन, वर्ली और तमाम उपनगरों के फुटपाथ आस-पास की मिलों या हघकरघों पर काम करने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों से भरे थे और आज भी हैं। अगर परेल के टाटा हॉस्पिटल जाना हुआ हो तो यहां के फुटपाथों पर दूर-दराज से इलाज के लिए आए वैंâसर पीड़ितों और उनके परिजनों पर भी नजर जरूर पड़ी होगी।
मुंबई का नामवर फुटपाथ
आपने मोहल्ले, गलियों, सड़कों, यहां तक कि चौक के नाम भी सुने होंगे, पर फुटपाथ का नाम! मरीन ड्रॉइव पर, तारापोरवाला मत्स्यालय के पास मुंबई का एक फुटपाथ ऐसा भी है, जिसे अपने नाम से जाना जाता है-खोटे फुटपाथ। गिरगांव चौपाटी की सफेद रेत में घुसना हो तो विल्सन कॉलेज के ठीक सामने खोटे फुटपाथ की राह ही जाना होगा। कौन है वह शख्स, जिसकी स्मृतियों को मुंबई ने अपनी सबसे जानी-पहचानी जगह पर उनका नाम देकर अमर कर दिया है।
अंग्रेजों के जिस जमाने की यह कहानी है, उस जमाने में मुंबई के सबसे ताकतवर और सबसे सम्मानित लोगों में से थे खोटे। पूरा नाम रघुनाथ नारायण खोटे। मुंबई महानगरपालिका आज जिन नियमों के तहत शासित है, सर फिरोजशाह मेहता के साथ उसके शिल्पकारों में थे खोटे। टाउनहॉल काउंसिल के निरंतर नौ वर्ष सदस्य रहे। महानगरपालिका में मलबार हिल और महालक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करते थे। उससे भी पहले, जब नागरिक शासन बेंच ऑफ जस्टिस के तहत होता था, वे जस्टिस ऑफ पीस हुआ करते थे।
प्रिंस ऑफ वेल्स जब मुंबई आए थे, तब वालकेश्वर की यात्रा में खोटे साए की तरह उनके साथ रहे। १ जनवरी, १८७७ को दिल्ली इंपीरियल असेंबली में निमंत्रित होने वाले गिने-चुने भारतीयों में उनका शुमार हुआ। खोटे उन दुर्लभ लोगों में से हैं, जिन्हें १८८३-८४ में मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का चेयरमैन होने के साथ मुंबई का शेरिफ होने का दुर्लभ सम्मान भी हासिल है। ७ अप्रैल, १८९१ को उनके देहावसान पर उन्हें जो श्रद्धांजलियां मिलीं कोई भी जनप्रतिनिधि उन पर सिर्फ रश्क ही कर सकता है।
खोटे के ज्ञान अनुभव और वक्तृता का लोहा सभी मानते थे। कोई भी काम हो मुंबईवासी रात-बेरात उनसे मिल सकता था। साख ऐसी कि कोई गुत्थी हो, सबसे पहले खोटे से ही संपर्क किया जाता। विवाद होने पर मध्यस्थता के लिए सबसे पहले उन्हीं का नाम ध्यान में आता। शासक और शासित-सबका उनमें एक-सा विश्वास था। १८७६-७७ के दुष्काल और दक्षिण भारत में आई बाढ़ के समय उन्होंने जो राहत कार्य किए, उसकी मिसाल आज तक दी जाती है। बहुत कम लोगों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पितामह के रूप में उनके योगदान के बारे में मालूम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिन संस्थाओं से निकली, उनमें एक-बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसिएशन के वे संस्थापक सदस्यों में हुआ करते थे।
वाइसरॉय के गोल्ड मेडल के साथ उन्हें ढेरों नागरिक सम्मान भी मिले, पर, पर्यटन के लिहाज से मुंबई की सबसे प्रमुख जगहों में से एक को उनका नाम! इस सम्मान की तो तुलना ही नहीं हो सकती।
घोगा स्ट्रीट
खोटे फुटपाथ से ज्यादा दूर नहीं है घोगा स्ट्रीट। घोगा स्ट्रीट फोर्ट इलाके में जन्मभूमि मार्ग पर एक गली का नाम हुआ करता था। इसके नामकरण की एक मजेदार कहानी है। कहते हैं कि बीते जमाने के जाने-माने पारसी व्यापारी फरामजी कावसजी बानाजी के पिता कावसजी की इस जगह एक दुकान थी। एक बार यहां आए एक यूरोपियन कारोबारी से कावसजी किसी विवाद को लेकर उलझ पड़े और गुस्से में चिल्ला उठे, ‘गो, गो’, यानी ‘दफा हो जाओ।’ गुस्से में यह यूरोपियन दुकान से बाहर निकल कर खड़ा हो गया और आने-जाने वालों से कहने लगा, ‘डोंट गो टु दिस गो गोज् शॉप।’ बस, उसी दिन से कावसजी का नाम ‘गो गो’ हो गया और इस जगह का घोगा।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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