मुख्यपृष्ठस्तंभआज और अनुभव : दंगा नहीं, चंगा करो

आज और अनुभव : दंगा नहीं, चंगा करो

कविता श्रीवास्तव

मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच जातीय अंतर्विरोध के कारण पिछले डेढ़ महीने से हिंसा का दौर जारी है। तोड़फोड़, आगजनी, बमबारी की घटनाएं रोकने में केंद्र व राज्य सरकार पूरी तरह विफल रही हैं। गृह मंत्री अमित शाह के सारे प्रयास विफल हो गए हैं। हमारे मुखर प्रधानमंत्री भी इस विषय पर खामोश हैं। मैतेई समाज स्वयं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है। कुकी समुदाय इसका विरोध कर रहा है और मणिपुर में हिंसा का तांडव लगातार जारी है। इस तरह लगातार चलने वाली हिंसक वारदातों से आम लोगों को त्रासदी वैâसे झेलनी होती है और उसका परिणाम क्या पड़ता है? यह मुंबई ने १९९२-९३ के दंगों के दौर में अनुभव किया है। ६ दिसंबर, १९९२ को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में अनेक ठिकानों पर कई हिंसक वारदातें हुई थी। उसी समय शहर मुंबई भी सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुआ था। उसके बाद कई परिवार तहस-नहस हुए और ढेर सारे उद्योग-धंधे मुंबई से बाहर चले गए। मुझे याद है उस दिन जब हम लोग देर रात चर्चगेट से लोकल ट्रेन में बैठकर मालाड के लिए रवाना हुए थे। स्टेशन पर ही कानाफूसी सुनाई दी कि मुंबई में जगह-जगह आगजनी और हिंसक घटनाएं हो रही हैं। ट्रेन में इक्का-दुक्का लोग ही थे। हमेशा खचाखच भीड़ से व्यस्त रहनेवाली मुंबई में उस दिन बिल्कुल सन्नाटा सा था। पता चला कि कुछ इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया है। हमेशा जाति-पाति, धर्म-संप्रदाय के भेदभाव के बिना एक-दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर चलनेवाली मुंबई में सांप्रदायिक हिंसा की बात हमारे गले नहीं उतर रही थी। हमें सुरक्षित घर पहुंचने की व्याकुलता होने लगी। मालाड पहुंचने से पहले ही दंगों का एहसास हमें होने लगा। पटरियों के आसपास बनी झोपड़ियों को हमने जलते देखा। सड़कों पर लकड़ियों के ढेर, टायर आदि भी जलते हुए दिखे। दादर व आस-पास के इलाकों में भी बहुत हिंसक वारदातें हुई थीं। हमें ट्रेन से आगजनी की कुछ झलकियां भी दिखाई दीं। माहिम पहुंचते-पहुंचते किसी ने हमारी ट्रेन पर पत्थर फेंका। हम दो-तीन लोग ही उस डिब्बे में थे। हमने फटाफट खिड़की और दरवाजे बंद कर दिए। हम बहुत ही घबरा गए। माहिम में दोनों तरफ सड़कों पर अग्नि ज्वालाएं दिखीं। एक बार ऐसा लगा कि हमें यात्रा करने का जोखिम नहीं लेना चाहिए था, रुक जाना चाहिए था। लेकिन अब हम लौट भी नहीं सकते थे। हम बहुत भयभीत थे कि ट्रेन किसी तरह हमारे गंतव्य तक पहुंचा दे और हम घर पहुंच जाएं। ऐसे में ट्रेन चला रहे मोटरमैन कि क्या मनोदशा होगी, यह सोचकर भी कलेजा कांप उठता है। जैसे ही ट्रेन मालाड पहुंची हमें पुलिस ने डंडे से खदेड़ कर प्लेटफार्म खाली करने को कहा। हम बाहर निकले तो वहां से पुलिस ने चेतावनी दी कि बाहर मत आइए, कर्फ्यू लगा हुआ है। हमारी स्थिति ऐसी हुई कि करें तो क्या करें! प्लेटफार्म से भगा रहे हैं। बाहर निकलने नही दे रहे हैं। तब, ‘मरता क्या न करता’ की स्थिति में हिम्मत बांध कर हम जबरन बाहर की ओर हाथ उठाकर आगे बढ़े। हमें आगे बढ़ता देखकर पहले से कोने में दुबके चार अन्य लोग भी हमारे साथ हो गए। पुलिस की घुड़की को नजरअंदाज कर हम उनके पास पहुंचे और अपनी अनभिज्ञता और मजबूरी बताई। पुलिस ने समझाया कि आगे लफड़ा हुआ है, संभलकर जाइए। हमारे मालाड में पहली बार कर्फ्यू लगा था। पूरा सुनसान था और हम हाथ उठा कर आगे बढ़ते जा रहे थे। आसपास की इमारतों की खिड़कियों से लोग चुपके से झांक रहे थे, क्योंकि सबने यही सुना था कि कर्फ्यू में बाहर दिखे तो गोली मार देते हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता है। हम आगे बढ़ते गए। बीच में संवेदनशील इलाका आया तो हम बिल्कुल डर गए। फिर हम हिम्मत करके आगे बढ़े। तभी कुछ लोग एक गली से सामने आ गए। हम और डर गए। लेकिन उन्होंने हमसे पूछा कि पीछे कुछ लफड़ा तो नहीं हुआ है? जब हमने बताया कि नहीं कहीं कुछ नहीं है, शांति है। तो वे गली में वापस चले गए और हम आगे बढ़ गए। अपने मोहल्ले में घुसते ही हमें हिम्मत आई। लेकिन वहां लोगों की भीड़ हाथों में डंडे आदि लेकर खड़ी थी। वे हमसे ही पूछने लगे कि कहां, क्या लफड़ा हुआ है? हमने कहा, पूरे रास्ते में कहीं कुछ नहीं हुआ। पर उन लोगों ने आशंका जताई कि कुछ लोग हमला करने आने वाले हैं, इसलिए हम लोग तैयारी से खड़े हैं। हम किसी तरह घर पहुंचे तो घरवालों ने भी राहत की सांस ली। आसपास के लोगों ने हमें घेरकर जानकारी लेनी चाही। हमने बताया कि चर्चगेट से हम भयभीत अवस्था में लेकिन आराम से आ गए।
उसके बाद हम तो दो हफ्ते घर से बाहर नहीं निकले। लेकिन मुंबई में अनेक जगह पर हिंसक वारदातें हुई। दंगे हुए। यह अनुभव आया कि ऐसे समय में अफवाहें और लोगों का उकसाना ज्यादा भारी पड़ता है। इसी से बचना चाहिए। सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर सक्रिय लोग इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। साधारण जनसमुदाय निजी तौर पर दंगा और हिंसा करने की मन:स्थिति में नहीं होता है। लेकिन ढेर सारे असामाजिक तत्व अफवाहें पैâलाने और लोगों को उकसाने में सक्रिय रहते हैं। इसी से लोग अक्सर जातीय या धार्मिक उन्माद में बह कर हिंसा पर उतारू होते हैं। इसे रोक पाना शासन-प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती होती है। मणिपुर में इन दिनों क्या हो रहा होगा, यह हम अपने अनुभव से समझ सकते हैं। इसे रोकने के लिए शासन-प्रशासन को सख्ती और बल प्रयोग के साथ-साथ जनसमुदाय को संयम व धैर्य के साथ समझाने का काम भी करना होगा।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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