मुख्यपृष्ठस्तंभआज और अनुभव : धक्का मारने और लूटने का `सत्संग'!

आज और अनुभव : धक्का मारने और लूटने का `सत्संग’!

कविता श्रीवास्तव

बीते मंगलवार को उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक सत्संग के बाद मची भगदड़ में १२३ लोगों की मौत हो गई। इनमें ७ बच्चे भी थे। यह घटना कथित कथाकार नारायण साकार हरि उर्फ `भोले बाबा’ (असली नाम सूरजपाल जाटव) के सत्संग के दौरान हुई। यह हादसा तब हुआ, जब यह कथित बाबा आयोजन स्थल से निकल रहा था और उसकी चरण की धूल लूटने के चक्कर में श्रद्धालु एक-दूसरे पर टूट पड़े। श्रद्धालुओं के दुख-तकलीफ दूर करने, उन्हें चमत्कार दिखाने और प्रलय लाने की क्षमता रखने का दावा करने वाला यह कथित बाबा हादसे के बाद से फरार हो गया है। अपने कुशल-मंगल, कल्याण और खुशहाल जीवन की कामना से सत्संग में पहुंचे सैकड़ों परिवारों के घर में आज मातम छाया हुआ है। इस हादसे से अनेक जगहों पर शोक का माहौल है। पूरा देश इस घटना से स्तब्ध है।
सत्संग के कार्यक्रमों एवं धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजनों में भीड़ का जुटना आम बात है। उक्त आयोजन में भी ८० हजार लोगों के जुटने की अनुमति ली गई थी, जबकि ढाई लाख लोग इकट्ठा हो गए। यह भी आम बात है, क्योंकि हमारे देश में ऐसे कार्यक्रमों में लोगों की आस्था और श्रद्धा अपार होती है और भीड़ टूट पड़ती है। हमने अक्सर ही देखा है कि जिंदगी की अपाधापी में लोग कुछ सुकून-चैन पाने और आध्यात्मिकता का लाभ लेने के उद्देश्य से ऐसे आयोजनों में स्वेच्छा से पहुंचते हैं। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है। मुझे याद है, जब मुंबई में आज से लगभग ४०-४५ वर्ष पहले डोंगरे बाबा का प्रवचन हुआ करता था। आज तो कथाकार-प्रवचनकार गली-गली में मिल जाएंगे। लेकिन डोंगरे महाराज जैसा सादा व्यक्तित्व और उनके जैसा सरल स्वभाव और सादे साधुत्व का कथाकार मैंने आज तक कहीं नहीं देखा। उनकी कथा और उनके सत्संग में न कोई जादू-मंत्र था, न कोई चमत्कार और न ही कोई आडंबर। न किसी चंदे, दक्षिणा या दान की अपील। उनके आयोजनों में कोई तामझाम, दिखावा और आडंबर भी नहीं होता था जैसा कि आजकल बहुत ही प्रभावी ढंग से और व्यावसायिक तरीके से होता है। लेकिन उनके अत्यंत ही सादे आयोजन में उनकी सादगी भरे ज्ञानवर्धक शब्दों को सुनने के लिए लोग जादुई आकर्षण से इकट्ठा होते थे। उस दौर में एक-दूसरे के प्रति सम्मान और आदर लोगों में कूट-कूटकर भरा रहता था। किसी से आगे बढ़ जाने और एक-दूसरे से अधिक लूट लेने जैसी संस्कृति उस दौर में नहीं थी। बूढ़े-बुजुर्गों के सम्मान में लोग खड़े हो जाते थे और उनसे दूर होकर उन्हें रास्ता देते थे। आज के अनेक युवाओं की तरह बदतमीजी करने वाली संस्कृति तब नहीं थी। महिलाओं-बच्चों की सुरक्षा के लिए लोग सक्रिय दिखते थे। आज के स्वार्थी लोगों की तरह धक्का मारकर या धकेलकर सत्संग में घुसने और दर्शन करने का चलन तब बिल्कुल नहीं था। वैसे व्यावसायिक आयोजन भी तब नहीं होते थे, जैसा कि आज के युग में देखा जाता है। मैंने मुंबई में देवकीनंदन ठाकुरजी महाराज की भागवत कथा का भी वर्षों से श्रवण किया है। उनके मंच से लोगों को भागदड़ न मचाने और सरलता-सहजता से एक-दूसरे को संभालते हुए बैठने, बाहर निकलने और संयम बरतने का बारंबार निर्देश दिया जाता है। इसी तरह के शांत और भव्य आयोजन कराते मैंने वर्षों पहले मालाड के तपोवन साधु आश्रम में रामानंद संप्रदाय के महात्यागी तपस्वी संत बाबा बालकदासजी महाराज को देखा है। ऐसे आयोजन मैंने सभी बड़े कुंभ मेले के दौरान भी देखे हैं। उनके कार्यक्रमों भी अनेक बार शामिल हुई हूं। इन कार्यक्रमों में बाबा का दर्शन करने या उनसे बातचीत करने या उनके करीब जाने की कभी कोई आपाधापी नहीं होती है, क्योंकि इसके लिए कोई तामझाम या झांकी वे नहीं बनाते। वे सरलता से एक जगह शांति से बैठे रहते हैं। हर कोई उनके सामने जाकर सिर झुका सकता है। उनके चरण छू सकता है। उनके कार्यक्रमों में तो एक दिन कतार से स्टेज पर बुलाकर महाराज के पास मंच तक सबको पहुंचने दिया जाता है। इससे श्रद्धालुओं की जिज्ञासा और इच्छा की पूर्ति होती है। उन्हें बाबा के पीछे दौड़ने, उनके चरण की धूल पाने के लिए लूट करने की जरूरत नहीं पड़ती। जब श्रद्धालु धर्मगुरु से मुलाकात कर लेता है तो उसका मनोबल बढ़ता है, उसकी आस्था बढ़ती है। यदि कोई बाबा, धर्मगुरु या कथाकार चमत्कार व जादू दिखाने, तंत्र-मंत्र करने का दावा करे और लोगों को जादुई जल पिलाकर उनके दुख-दर्द का इलाज करने की बात करे तो यह अंधश्रद्धा ही कही जाएगी। इससे समाज में गलत संदेश जाता है। धर्मगुरु के प्रयासों से लोगों में त्याग, संयम, शालीनता के साथ एक-दूसरे का आदर करने का भाव बढ़े। धक्का मारने, लूट लेने की संस्कृति से बचने की सीख मिले, तभी सत्संग काम का है। अनुयायियों का भला करने का दावा करके मजमा लगाने वाला आफत आने पर दुम दबाकर भाग जाए तो उससे बड़ा स्वार्थी कौन हो सकता है?
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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