मुख्यपृष्ठस्तंभआज और अनुभव : मारे भूतन को गोली, खेले मसाने में होली!

आज और अनुभव : मारे भूतन को गोली, खेले मसाने में होली!

कविता श्रीवास्तव

`धन-धन नाथ अघोरी, खेले मसाने में होरी…’ कहते हुए शिवभक्तों का कारवां जब काशी नगरी के मणिकर्णिका घाट पहुंचकर जलती चिताओं से भस्म निकालकर होली खेलने में मशगूल हुआ तो भूतनाथ भगवान दिगंबर काशी विश्वनाथ महाराज निश्चित ही बहुत प्रसन्न हुए होंगे। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को शिवभक्तों का यह अनूठा हुड़दंग प्रतिवर्ष सारी दुनिया को दंग करता है। करे भी क्यों नहीं, क्योंकि एक दिन पहले ही रंगभरी एकादशी को मां गौरी का गौना जो हुआ था। देवों के देव महादेव अपने विवाह के उपरांत पार्वती मैया को काशी नगरी जो ले पहुंचे थे। अगले दिन घोरी-अघोरी, भूत-प्रेत, पिशाच, पशु-पक्षी, आगल-पागल, अड़भंगे सब बाबा विश्वनाथ के आगमन की खुशी में श्मसान से राख लेकर बदन पर मलकर, हवा में उड़ाकर होली खेलने लगे। यह दृश्य वाराणसी में होली के दो दिन पहले प्रतिवर्ष देखा जाता है। इसी के साथ होली का हुड़दंग शुरू हो जाता है। होली बनारस की हो या वृंदावन, मथुरा, बरसाने की हो। होली पूरे देश में और विदेश में धूमधाम से मनाई जाती है। उत्तरी भारत में गुझिया, पकोड़े, मालपुआ आदि से अतिथियों का हफ्तोंभर स्वागत होता है। इधर मुंबई में भी हम वर्षों से धूमधाम से होली मनाते आए हैं। लेकिन इस वर्ष मुंबई महानगरपालिका ने पेड़ों की कटाई करने पर दंड का प्रावधान किया है। अब जब होली है तो होलिका दहन भी होगा और इसके लिए लकड़ियां भी तो चाहिए ही। मुझे याद आता है आज से कोई ४० वर्ष पहले जब मालाड में होलिका दहन से एक महीने से पहले ही आस-पास के सुनसान इलाकों से मोहल्ले के बच्चे और युवाजन पेड़ों की टहनियों को काटकर मोहल्ले के मैदान में सूखने के लिए रख दिया करते थे। इन लकड़ियों का होली के दिन उपयोग होता था। आस-पास के लोग भी अपने पुराने फर्नीचर और लकड़ियों के फालतू सामान भी लाकर वहीं फेंक जाया करते थे, ताकि होलिका दहन में उपयोग हो जाए। होलिका जब खड़ी की जाती थी तो उसके पूजन के लिए सारी बस्ती इकट्ठा हो जाती थी, जैसा कि आज भी होता है। यह हमारी समुदायिकता और एकजुटता की बहुत बड़ी संस्कृति है। होली के अगले दिन एकदूसरे को पकड़कर रंग लगाना, परस्पर मस्ती करना, पानी में मजे लेना, पकवानों का लुत्फ उठाना यह तो आज भी हो रहा है, लेकिन इसी मुंबई में धुलेटी के दिन हमारी बस्ती में बच्चे मैदान में बड़ा सा गड्ढा कर दिया करते थे। उसमें पानी और रंग उंडेल दिया जाता था। लबालब भरे उस मटमैले कीचड़युक्त गड्ढे के पानी में एक-एक व्यक्ति को लाकर धकेलना, उसे डुबाना, उसके ऊपर कीचड़ उछालना जो आनंद देता था, उसे बयां नहीं किया जा सकता। उस कीचड़ में जाने से पहले सब हिचक जाते थे और मना करते थे। गुस्सा भी होते थे, लेकिन एक बार जब मटमैला पानी और रंग बदन पर लग जाता था, तब वह खुद ही रंग-गुलाल और मिट्टी लेकर दूसरे की ओर लपक पड़ता था और फिर घंटों हम इसके मजे लेते थे। इस तरह पूरी बस्ती होली का आनंद लेती थी। दोपहर बाद युवाओं की टोली अपने इलाके के दूसरी तरफ शांताराम तालाब की ओर बढ़ा करती थी। वहां नैसर्गिक तालाब था। उसका एक हिस्सा आज भी मालाड में मौजूद है। उसके ठीक बगल में खुली जमीन पर एक हिस्सा श्मशान का भी था। वहां मृत व्यक्ति दफनाए जाते थे। हमारे युवा जब उस इलाके में झाड़ियां काटने जाते थे और होली के लिए लकड़ी इकट्ठा करते रहते थे तो बड़े बुजुर्ग कहा करते थे भूत-प्रेत से डरा करो। लेकिन बच्चों का उत्साह किसी भूत-प्रेत से डरता नहीं था। यह जोश ठीक वैसा ही होता था, जैसा रंगभरी एकादशी पर वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर आज भी होता है। होली का रंग खेलकर दोपहर के वक्त सारे बच्चे इस तालाब पर पहुंच जाया करते थे और जमकर नहाने, बदन से रंग साफ करने और तैरने का सामूहिक आनंद लेते थे। बगल में ही श्मशान था, उसकी किसी को फिक्र नहीं होती थी। हर होली में तालाब में सब खूब डूब-डूबकर नहाकर अपने रंग और कीचड़ धोकर जब बाहर आते थे, तब होली का भरपूर आनंद लेने का लेने की अद्भुत संतुष्टि मिलती थी। इसलिए जब बनारस में `मसाने की होली’ के किस्से हम सुनते हैं तो हमें मुंबई के शांताराम तालाब के उन दिनों को भी याद करके उस जोश, उस उत्साह और उस मस्तीभरे उमंग के भाव की अनुभूति करके बड़ी प्रसन्नता होती है। होली है ही ऐसा त्यौहार, जिसमें हर कोई रंग लगवाने से पहले तो मना करता है, लेकिन बाद में मस्ती में डूबने लगता है तो उसे होली का आनंद आने लगता है। इसीलिए कहा भी जाता है `होली है, भाई होली है, बुरा न मानो होली है।’ इस त्योहार के माध्यम से सामाजिक समरसता, सामाजिक एकजुटता के साथ ही आपसी भेदभाव, दूरियों और मनमुटाव को समाप्त करने का अवसर भी मिलता है। एकदूसरे से मिलकर खुशियां बांटने, मनभावन व्यंजनों का लुत्फ उठाने और जीवन को उदासीनता और सूनेपन से निकलकर रंगभरा बनाने का प्रोत्साहन भी मिलता है। जीवन नीरस और बेरंग नहीं हो सकता। जीवन को होली के रंगों की तरह रंगबिरंगा और उत्साहजनक बनाने की प्रेरणा हमें होली, दीपावली और सभी त्योहारों पर मिलती है। यही हमारी परंपारिकता है और यही हमारी संस्कृति है। जो भोलेनाथ के देवकाल से लेकर आज की आधुनिक मानवीय सम्यता तक सभी उत्साही लोगों में निरंतर जारी है और आगे भी जारी रहेगी।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

 

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