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आज और अनुभव : नेता के बदन पर पसीना, कार्यकर्ता का चौड़ा सीना!

कविता श्रीवास्तव
नेताओं पर इन दिनों बड़ी आफत है। एक तो चुनाव लड़कर जीतना है। ऊपर से भीषण गर्मी सताए जा रही है लेकिन करें भी क्या? इसी गर्मी में गली-गली पहुंचना है। पदयात्राएं, रैलियां, सभाएं, मीटिंग्स आदि ने तमाम नेताओं के पसीने निकाल रखे हैं। कुछ गश खाकर गिरे जा रहे हैं। कुछ घायल हो गए हैं, फिर भी ठंडे पानी, शरबत, जूस के सहारे कार्यकर्ताओं के साथ प्रचार में डटे हुए हैं। आमतौर पर जनता के बीच रहने वाले नेताओं को कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा। लेकिन वह नेता जो अक्सर अपनी वातानुकूलित गाड़ियों से निकलकर वातानुकूलित कार्यालयों, वातानुकूलित होटलों और सुख-सुविधाओं भरी जीवनशैली में रहते हैं, चुनावी दौर में उनकी हालत जरूर कुछ पतली होती है। इसके बावजूद चुनाव जीतने के लिए पूरी शक्ति से भिड़ने का जोश उन्हें आगे बढ़ाता रहता है, लेकिन इन्हीं चुनावी दौर में कई कार्यकर्ताओं और ज्यादातर छुटभैए किस्म के कार्यकर्ताओं की मौज होती है। उनकी खूब चांदी रहती है, क्योंकि वे सुबह से ही कुर्ता-पायजामा जैसे राजनीतिक वस्त्र धारण करके प्रचार की भीड़ में पहुंच जाते हैं। उनके नाश्ते, चाय-पान, खाने-पीने, वाहन आदि की व्यवस्था उम्मीदवार के समर्थकों द्वारा कर दी जाती है। वे शान से सीना ताने बड़े-बड़े नेताओं के साथ कंधा मिलाकर चलते हुए अपना रौब बनाते भी दिखते हैं। वे अपने इलाके के जानकार होते हैं इसीलिए नेता और समर्थक उनकी सब हरकतें बर्दाश्त करते हैं। वोट पाने की मजबूरी जो ठहरी। चुनाव में सबके सामने जबरन मुस्कुराने, उनसे हाथ मिलाने जैसी मजबूरियां भी नेतागण झेलते हैं। हालांकि, नियमित रूप से लोगों के बीच उठने-बैठने वाले नेताओं के लिए यह मजबूरी नहीं होती लेकिन वीआईपी किस्म के नेताओं के लिए यह बड़ी विकट परिस्थिति होती है। यह हमने लगभग हर चुनाव में देखा है और इस बार भी देख रहे हैं। हालांकि, मुंबई में अभी सभी लोकसभा सीटों पर पर्याप्त उम्मीदवार घोषित नहीं हुए हैं। लेकिन जहां-जहां उम्मीदवारों के नाम आ गए हैं, उनमें से अनेक नेताओं ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार शुरू भी कर दिया है। ऐसे ही एक नेता के काफिले को मैंने बुधवार को देखा। नेताजी संभवत: मुंबई के सबसे महत्वपूर्ण वीआईपी प्रत्याशी हैं इसलिए उनके काफिले के संग ढेर सारे कार्यकर्ता टोपी, मफलर, बिल्ला लगाए झंडा उठाए उनके साथ चल रहे थे। साथ में कई महंगी गाड़ियां भी थीं और पुलिस दल भी सुरक्षा में लगे हुए थे। दोपहर का वक्त था। पसीने से लथपथ नेताजी का काफिला एक होटल के बाहर रुका था। नेताजी सीधे होटल के वातानुकूलित अहाते में पहुंच गए और पसीना पोंछने लगे। कार्यकर्ताओं ने बाहर ठंडी बोतलें खोलकर पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। संभवत: कार्यकर्ताओं के जलपान की वहीं व्यवस्था रही होगी। इस पर कार्यकर्ता बड़े प्रसन्न व संतुष्ट से नजर आ रहे थे। मुझे भी वे दिन याद आए, जब विभिन्न चुनाव में हम भी युवाओं की टोलियों में इसी तरह कार्यकर्ता के रूप में किसी भी नेता के संग घूम-फिर लिया करते थे। हमें नेता या उसकी हार-जीत से नहीं बल्कि चाय-नाश्ते से मतलब रहता था। गाड़ियों में बैठकर सैर करना और उनके साथ भोजन का लुत्फ उठाना। हमारे लिए यह किसी रोमांच से काम नहीं था। तब हम न राजनीति का मतलब समझते थे, न उसकी लाभ-हानि का हमें पता था। हमें उनकी महत्वाकांक्षा और नीतियों की जानकारी भी नहीं थी। चुनाव में वे हमें कार्यकर्ता के रूप में खूब सम्मान देते थे। हमें खूब मजा आता था इसलिए हर चुनाव में हम किसी भी दल के लिए काम जरूर करते थे। बाद में वह सब छूट गया। किंतु आज जब चुनावों के दौरान मैं कार्यकर्ताओं के संग में ढेर सारी गरीब अनपढ़ किस्म की महिलाओं और अपेक्षाकृत कम उम्र के युवाओं को देखती हूं तो लगता है कि इनमें से कुछ तो जरूर पार्टी के कार्यकर्ता होंगे। लेकिन ढेर सारे ऐसे भी होंगे जिन्हें उनकी पार्टी और उनकी नीतियों से कोई सरोकार होगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। हमने देखा है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के कार्यालय जहां होते हैं उससे कुछ दूर किसी ठिकाने पर जलपान, भोजन आदि के भव्य प्रबंध किए जाते हैं। वह ऐसी जगह किए जाते हैं, ताकि वह कार्यालय के खर्च की गणना में न दिखाई दे। वहां पहुंचने पर खाने-पीने के समय ढेर सारे लोगों की उपस्थिति दिखती है, जबकि पदयात्राओं, रैलियों में उतने लोग नहीं दिखते हैं। ऐसे ढेर सारे लोग चुनाव में खूब मजा लेते हैं। चार-पांच दशक पहले तो हमने कुछ ऐसे भी कार्यकर्ता देखे हैं, जो सुबह किसी प्रत्याशी के यहां नाश्ता करते मिलेंगे। बीते दौर में हमने कई बार प्रत्याशियों के कुछ समर्थकों द्वारा बेरोजगारों, युवाओं व अन्य लोगों को राह खर्च व जेब खर्च भी चुनाव के दौरान बांटते देखे हैं। तब तो हमें भी यह सही लगता था कि आखिर दिन भर साथ रहे लोगों का कुछ तो खयाल रखना ही चाहिए। हालांकि, उन दिनों आचार-संहिता की इतनी अधिक सख्ती नहीं थी और कोई खास निगरानी भी रखी नहीं जाती थी। लेकिन आजकल तो प्रत्याशियों की हर गतिविधि पर कैमरे द्वारा नजर रखी जा रही है। ऐसे में मौज उड़ाने वाले कार्यकर्ता भी चुनावी प्रचार में आते होंगे या नहीं हमें नहीं पता। लेकिन चुनावों में कार्यकर्ता महत्वपूर्ण होते हैं और चुनाव उनके दम पर ही लड़े जाते हैं।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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