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उड़न छू : किस्से मूंछों के

अजय भट्टाचार्य
दो महीने पहले की बात है। छत्तीसगढ़ के बड़े भाजपा नेता नंदकुमार साय ने रायपुर के पिरदा में एक प्रदर्शन के दौरान घोषणा की थी कि जब तक राज्य में भाजपा सरकार नहीं बनेगी वे बाल नहीं कटवाएंगे। जवाब में भूपेश सरकार के मंत्री अमरजीत भगत ने मूंछ को दांव पर लगाते हुए घोषणा की कि यदि भाजपा सरकार में आई तो वे अपनी मूंछें कटा लेंगे। २००३ में भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव ने अपनी मूंछ को दांव पर लगाया था। मजा यह है कि अब नंदकुमार साय भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ चुके हैं।
खैर मूंछें मर्द की शान कही जाती हैं और मान भी। भगवान कृष्ण के महान भक्त नरसी मेहता एक बार साधु-संतों के साथ किसी तीर्थस्थल के मंदिरों में दर्शन कर रहे थे। वे अपनी धन-संपत्ति दान कर चुके थे। अब भगवान का नाम ही उनकी सबसे बड़ी संपत्ति था। मंदिर से बाहर आते ही उन्हें याचकों ने घेर लिया और धन-भोजन आदि मांगने लगे। पास में एक पैसा नहीं और यहां याचकों की भीड़ लगी थी! किसे क्या दें? नरसी जी चिंतित हो गए। तभी उन्हें एक उपाय सूझा। उनके पास गिरवी रखने योग्य एक वस्तु थी। उनका मानना था कि पुरुष की मूंछ भी उसकी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान का प्रतीक होती हैं। इसलिए वे एक साहूकार के पास गए और अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रख आए। साहूकार ने इसके बदले उन्हें धन दे दिया और नरसी जी ने वह संपूर्ण धन याचकों को दान कर दिया। राजस्थान के मारवाड़ के शूरवीर योद्धा बल्लू चंपावत सदियों पूर्व अपनी मूंछ का बाल गिरवी रख अपने राजा का शव मुगल सल्तनत के आगरा किले से निकाल लाए थे।
मतलब एक वह जमाना था जब मूंछें आन-बान-शान का प्रतीक हुआ करती थीं। मूंछ पर हाथ डालना इज्जत से जोड़ लिया जाता था। मूंछ ही आदमी की शान-ओ-शौकत का एहसास कराती थी। मूंछ ही हार-जीत का पैâसला करती थी। लोग लड़ाई में अपनी मूंछों के लिए अपनी जान दे दिया करते थे। अगर किसी राजा ने अपनी मूंछें मुंडवा ली तो हल्ला मच जाता था। समझ लो हार गया। एक बाल का मतलब होता था जबान, लोग अपनी जबान के बदले मूंछ का एक बाल गिरवी रख दिया करते थे। दी गई जबान पूरी नहीं हुई तो अगले दिन मूंछें साफ। उस जमाने में कहा भी जाता था कि मूंछ रखने का अधिकार केवल घर के उस मुखिया को है, जो बेहतर ढंग से परिवार चला सकता हो, उस राजा को जो अपनी प्रजा का खयाल रखता हो, उस महाराजा को, जिसकी छत्रछाया में सारे राज्य तरक्की कर रहे हों। वैसे भी तब राजा के सामने मूंछ लेकर तो कोई जाता नहीं था। ऐंठना तो दूर की कौड़ी। लिहाजा, उस दौर में अगर किसी परिवार या राज्य में कुछ भी गलत होता था तो यही कहा जाता था कि इस मुखिया या फिर फलां-फलां राजा को मूंछें रखने का हक नहीं। ऐंठना तो बहुत दूर की बात है। यानी मूंछें ही सर्वोपरि। मूंछों और नाक का उस दौर में सीधा रिश्ता था। मूंछों पर बन आई तो समझो नाक गई। नाक गई तो समझो इज्जत गई। खैर मूंछों का हो या ना हो लेकिन नाक का रुतबा तो आज भी है। तब मूंछें रखनेवाले खुद से ज्यादा मूंछों का खयाल रखते थे। जब नाई से मूंछ सही करानी हो तो नाई के दास्ताने जरूरी। अगर मुखिया या राजा की मूंछें हों तो फिर नाई की क्या मजाल की उसका एक बाल भी वो ले जाए। सब सहेजकर रखी जाती थीं। जैसे मूंछें ना हों कोई खजाना हो जिसे छिपाकर रखना बेहद जरूरी। नाई से कुछ गड़बड़ होते ही खैर नहीं। मारपीट से लेकर जुर्माने तक या इससे भी आगे अत्याचार तक नाई को झेलने ही पड़ते थे पर अब?
महाराष्ट्र में कृषि उत्पन्न बाजार समितियों के नतीजे घोषित हुए एक पखवाड़ा बीत चुका है। हिंगोली के विधायक संतोष बांगड़ के गढ़ कलमनुरी बाजार समिति में महाविकास आघाड़ी सत्ता में आ गई है। महाविकास आघाड़ी ने भारी मतों से १२ सीटों पर जीत दर्ज की है। इस बीच इस चुनाव को लेकर प्रदेश भर में प्रचार की चर्चा रही। इस चुनाव में संतोष बांगड़ ने कहा था कि अगर इस पैनल की १७ में से १७ सीटों पर जीत नहीं होती है तो विधायकजी अपनी मूंछ नहीं रखेंगे। किसी ने अगर बांगड़ की मूंछमुंडित फोटो देखी हो तो जरूर बताएं।

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