अजय भट्टाचार्य
चार दशक से भी पहले भवानी प्रसाद मिश्र ने ‘चार कौये उर्फ चार हौये’ शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो निम्नवत है-
बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले।
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले।
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें।
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें।
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में।
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में।
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये।
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये।
हंस, मोर, चातक, गौरैये किस गिनती में।
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें।
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाय।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को।
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में।
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में।
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले।
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले।
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है।
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है।
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना।
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना।
बीते दस साल से देश की राजनीतिक धुरी इन्हीं चार कौओं और चार हौवों के आस पास घूम रही है। जो चार कौये हैं उनमें दो राजनीतिक अखाड़े और दो व्यावसायिक अखाड़े के हैं। बाकी जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है वह उन कौओं की भूमिका में है जो कांव-कांव के शोर में गौरैया तथा अन्य पक्षियों की आवाज को दबाने में लगे हैं। १९४७ से लेकर २०१४ तक जो हौआ खटमल की तरह खटिया के बान से चिपका था वह हौआ सत्ता का रक्त चखते ही हरकत में आया और धर्म, संस्कृति, राष्ट्र पर खतरे गिनाने लगा। खतरा किनसे? जिनके साथ अब तक सदियों से साथ रहा, अब उनसे ही खतरा नजर में लाने, दिखने-दिखाने के प्रपंच राजनीति के मंच पर प्रहसन बनाकर परोसने का नतीजा यह है कि खतरे में आया हुआ धर्म अपने ही अनुयायियों का खून बहाकर संस्कृति, संस्कार की रक्षा के दर्प में अट्टहास कर रहा है। तुलसी ने दया को धर्म का मूल बताते हुए लिखा था-
दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छाँड़िए, जब लगि घट में प्रान।
कौआ तामसिक वृत्ति का पक्षी माना गया है। आज राजनीतिक कौये मिलकर धर्म की धवलता को तामस में बदलकर धर्म जागरण कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)